पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२३७

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२३६ बोलासे गंगा छोड़ना पड़ रहा है। मुझे निश्चय हैं कि वर्तमान राजवंशके समय तक यह लेख नहीं प्रकट होगा | मैंने इसके रखनेका इन्तज़ाम किया है। आनेवाले लोग मेरे बारेमें ग़लत धारणा रखनेसे बच जायेंगे, यदि मेरी प्रसिद्ध पुस्तकों के पढनेके पहले इस लेखको पढ़ लेंगे। | राजा हर्षनै भरी सभामें मुझे भुजंग (लम्पट) कहा था, जिससे लोगोंको भ्रम हो सकता है। मैं धनी पिताका लाड़ला पुत्र था। भास कालिदासी कृतियोंको पढ़-पढ़कर मेरी तबीयत रंगीन हो गई थी, इसमें सन्देह नहीं। मेरे पास रूप और यौवन था। मुझे देशाटनका शौक था । मैंने यौवनका आनन्द लेना चाहा, और चाहता तो अपने पिताकी भाँति धरपर ही वह ले सकता था, किन्तु मुझे वह भारी पाखंड जेंचा --भीतरसे काम स्वेच्छाचारी होते हुए भी बाहरसे अपनेको जितेन्द्रिय, सयमी, पुजारी, महात्मा प्रकट करना मुझे बहुत बुरा लगता था। मैंने जीवन-मर इसे पसन्द नहीं किया। जो कुछ किया, प्रत्यक्ष किया । पिता ने अपने असुवर्ण पुत्रको स्वीकारकर सिर्फ एक ही बार हिम्मत दिखलाई थी; किन्तु, वह तरुणाईका ‘पाप’ गिना जा सकता था। मैंने देखा, जवानीकै जिस आनन्दको मैं लेना चाहता हूँ, उसे अपनी जन्मभूमिमे नहीं ले सकता । वहाँ सारे जाति कुलवाले बिगड़ जायेगे, फिर धन-वित्त से भी हाथ धोना पड़ेगा। मुझे एक अच्छा ढग याद आया। मैंने अपनी एक नाटक-मडली बनाई----हो, मगधसे बाहर जाकर | फिर मेरे तरुण मित्र वही थे, जो गुणी और कला-कुशल थे। धूर्च, खुशामदी, मूर्ख बनानेवाले मित्रोंको मैं कभी पसन्द नहीं करता था। मैंने अपनी मण्डली में कितनी ही सुन्दर तरुणियोंको भी शामिल किया, जिनमें सभी बारवनिताएँ (वेश्याएँ) नहीं थीं। इसी यात्रामें मैंने अभिनय करनेके लिए 'रत्नावलि', प्रियदर्शिका' आदि नाटक-नाटिकाएँ लिखीं । मैने तरुणाईॐ आनन्दके साथ कलाको भी मिला दिया, और इसमे कलाकी जो सेवा हुई, उसे देखते हुए सहृदय पुरुष मेरी प्रशसा ही करेंगे। मैने जीवनका आनन्द लिया, साथ ही आपको 'रत्नावलि', 'प्रियदर्शिका