पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४०

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३३६. “ठीक कहते हो, आचार्य ! मैं इसे अनुभव करता हूँ; किन्तु, एक बार अन्तःपुरमे ले लेनेयर हम उन्हें निकाले कैसे है। इसपर मैं उन्हें ढग बतलाता । गाना-नाचना आज इमारी राजकन्याओं, सामन्त-कन्याओं और राजान्तःपुरिकाके लिए अनिवार्य है। यह मानों उनके लिए जले और आहारके तौरपर है। मैं अपनी चतुर नारियोंको भेजता । राजा अपनी उन अन्तःपुरिकाको कला सीखने के लिए उनके पास जानेको कहता। जिसे हमें लेना होता, उसे अन्तःपुरके कष्ट और कलाविद् जीवनका आनन्द बतलाते; साथ ही यह भी कि जैसे यहाँ राजाने हमारी मंडलीकी एक निपुण नटीको रनिवासम ऊँचा स्थान दिया है, वैसे ही हो सकता है कि तुम्हें भी आगे मौका मिले। इतना कहनेपर अनेक तरुणियोंका राज़ी होना स्वाभाविक था—यद्यपि हम उनमे से योग्यतमको ही लेते । राजा लोगोंने जीवन में एक बारके समागमके लिए जहाँ हज़ारों तरुणियों का अवरोध कर रखा हो, वहाँ अन्तःपुरम पुरुषप्रवेशके कड़े निषेधसे भी कुछ बनता-बिगड़ा नहीं । बूढे कचुकी ब्राह्मण उनको तरुणाईके आनंद से रोक नहीं सकते ।। मैंने जब विधवाके सती होनेका विरोध किया, तो पाखंडियोलेब्राह्मणों और राजाश्नसे बढकर दुनिया में कोई पाखडी नहीं हो सकता --बड़ा हो हल्ला मचाया। कहने लगे, वह गर्भ-हत्या और विधवाविवाह फैलाना चाहता है। गर्भ हत्या मै बिल्कुल नहीं चाहूता, किन्तु, यहाँपर यह स्वीकार करनेमें कोई उच्च नहीं कि मैं विधवा-विवाह पसन्द करता हूँ। गुप्तके शासनसे हमारा पुराना धर्म कुछ सै-कुछ हो गया । जहाँ हमारे श्रोत्रिय बिना वत्सतरी मासके किसी आतिथ्यको स्वीकार करनेके लिए तैयार नहीं थे, वहाँ अब गौमास-भक्षणको धर्मविरुद्ध समझा जाता है। जहाँ हमारे ऋषि विधवाओंके लिए देवर-- दूसरा वर-बिल्कुल उचित समझते थे और कोई तरुण विधवा ब्राह्मण, क्षत्रिया छः महीने-बरस दिनसे ज्यादा पति-विधुरा नहीं रह