पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४२

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दुख राजाके आश्रित रह रहा हूँ, किन्तु यह आश्रय लेना जान-बूझकर न था। मेरी अपनी सम्पत्ति इतनी थी कि मै एक संयत भोगपूर्ण जीवन बिता सकता था। अपने समयके घर्मध्वजी राजाओं और ब्राह्मणसे मैं बहुत अधिक संयम रख सकता था । हर्ष और दूसरे राजर्षियोंकी भाँति मैं लाखचुम्बी ( लाख सुन्दरियोंको भौगनेवाला ) बननेकी होड़े रखनेवाला न था। ज़्यादा-से-ज्यादा सौ सुन्दरियाँ होगी, जिनके साथ मेरा किसी न-किसी समय प्रेम रहा होगा। किन्तु मेरा घर, सम्पत्ति, सब कुछ हर्षकै राज्यमें था। जब उसका दूतपर दूत आ रहा हो फिर मैं कैसे राज-दरबारमै जानेसे इन्कार करता ? हाँ, यदि मै भी अश्वघोष होता, घर-द्वारकी फिक्र न होतीं, तो इर्षकी परवाह न करता। हर्षके बारे में यदि आप मेरी गुप्त सम्मति पूछेगे, तो मैं कहूँगा कि अपने समयका वह बुरा मनुष्य या बुरा राजा न था । अपने भाई राज्यवर्धनके साथ उसका बहुत प्रेम था, और यदि भाईके लिए सती होनैका भी हमारे घर्मनायकोंने विधान किया होता, या संकेत भी कर रखा होता, तो वह उसे कर बैठा होता। लेकिन साथ ही उसमें दोष भी थे, और सबसे बड़ा दोष या दिखावा–प्रशंसाकी इच्छा रखते हुए अपनेको निस्पृह दिखाना; सुन्दरियोंकी कामना रहते हुए अपनेको कामना-रहित जतलाना; कीर्तिकी घाछा रखते हुए कीर्तिसे कोसों दूर रहनेकी चेष्टा दर्शाना। मैंने हर्षको बिना पूछे अपने नाटकोको ‘हर्ष निपुण कवि'के नामसे क्यों प्रसिद्ध किया, इसके बारे में कह चुका हूँ। किन्तु परिचय तथा रात-दिनकी संगति होनेके बाद उसने कभी नहीं कहा-'वाण, अब इन नाटकको अपने नामसे प्रसिद्ध होने दो ।' यह आसान भी था । सिर्फ एक बार उसके अधीन सामन्त-दरवारोंमें श्री हर्षों निपुणः कविःकी जगह 'श्री वाणो निपुणः कविःके साथ नाटक के अभिनय करा देनेकी ज़रूरत थीं। | मुझे जगत् जैसा है, उसे वैसा ही चित्रित करनेकी बड़ी लालसा थी । यदि मैने पर्यटनमें अपने बारह वर्ष न विताए होते, तो शायद-यह