पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४३

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वोल्गासे गंगा लालसा न उत्पन्न होतो, अथवा उत्पन्न भी होती, तो मैं उसका निर्वाह नहीं कर सकता। मैंने जहाँ आच्छदसरोवरका वर्णन किया, वहाँ हिमालयकी तराईकी एक सुन्दर भूमि मेरे सामने थी। कादम्बरी-भवनके वर्णन करनेमे हिमालयका कोई दृश्य था। विब्याटवीम अपनी एक देखी जगहमें जरद् ( बूढे ) द्रविड़ धार्मिकको मैने बैठाया । लेकिन इतने ही चित्रणसे मै अपनी उलिकाको विश्राम नहीं देना चाहता था। मैंने हर्ष तथा दूसरे अपने सुपरिचित राजाओं के प्रासादों, अन्तःपुरों और उनकी लक्ष्मीका चित्रण अपने अन्योंमे किया; किन्तु मैं उन कुटियों और उनके वैदनापूर्ण जीवनको नहीं चित्रित कर सका, जिनकी वह अवस्था इन्हीं प्रासादों और रनिवासोंके कारण है। यदि चित्रित करता तो इन सारे राज-प्रासादों तथा राज-भोगोंपर इतनी जबरदस्त कालिमा पुतती कि हर पाँच साल प्रयागमें राजकोष- गृलत है. अतिरिक्त झोष-उड्वानेवाला इर्ष फिर मुझे भुजंगकी पदवी देकर ही सन्तुष्ट न होता । नुनै लोग दुर्मुख कहते हैं, क्योंकि कटु सत्य बोलनेझी बुझे आदत हैं। इमारे नबनें और भी कटु सत्य बोलनेवाले जब-तब मिलते हैं। किन्तु वह पागलोंके बहाने वैसा करते हैं, जिसके कारण कितने ही उन्हें चमुच पागल समझते हैं और कितने ही श्रीपर्वतसे या कोई अद्भुत सिद्ध। मै भी इस श्रीपवतके युगनें एक अच्छा खासा सिद्ध बन सकता था; किन्तु उस वक्त मेरा नाम दुर्मुख नहीं होता है किन्तु यह लोकवंचना मुझे पसन्द नहीं। लोक-वंचनाके ही ख़यालसे मैने नालन्दा छोड़ा, नहीं तो मै भी वहाँ पण्डित, महापाडतोनै होला । वहाँ रहकर मैने एक आदमीको अन्धकार-राशमै श्रृंगार फैज्ञते देखा था। किन्तु यह भी देखा कि किस तरह अपने-पराए उसके पीछे पड़े थे । आपको जिज्ञासा होगी उस आदमीके बारेमें। वह था तार्किक श्रेष्ठ, इज़ारों पुरुष-मैहोंने एक ही पुरुष-सिंह धर्मकीर्ति । नालन्दामै बैठे हुए