पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४४

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दुर्मुख २४३ हैं उसने डकेकी चोटसे कहा-'बुद्धिके भी अपर पोथीको रखना, ससारकै कत्त ईश्वरको मानना, स्नान करनेसे धर्म होनेकी इच्छा, जन्म-जातिका अभिमान, पाप नाश करने के लिए शरीरको सन्तप्त करना-अक्ल मारे हुऑकी जड़ताके ये पाँच लक्षण हैं।* मैंने धर्मकीर्तिसे कहा--‘आचार्य, तुम्हारा हथियार तीक्ष्ण है; किन्तु इतना सूक्ष्म हो गया है कि यह लोगोंको नज़र ही नहीं पड़ेगा। धर्मकीर्तिने कहा- मैं भी अपने इथियारकी कमजोरीको समझता हूँ। जिसका मैं ध्वस करना चाहता हूँ, उसके लिए मुझे कवचहीन हो सबको दिखलाई देनेवाले प्रचण्ड हथियारोंको हाथमें लेना चाहिए। नालन्दा स्थविर-महास्थविर ( सन्त-महन्त ) अभीसे मुझसे नाराज हैं। क्या तुम समझते हो, मैं एक भी विद्यार्थी पा सकेंगा, यदि मै कहना शुरू करें-नालन्दा एक तमाशा है, जिसमें ऐसे विद्यार्थी आते हैं, जो कभी विस्तृत लोकको आलोकित नहीं कर सकते, वह अपने ज्ञान-तेजसे अज्ञों-अल्पज्ञोंकी आँखोंमे चकाचौंध-भर पैदा करंगे । जिनको शीलादित्यके दिए गाँवोंसे सुगन्धित चावल, तेमन, घी, खजूर आदि मिलते हैं, वह शीलादित्यके भोगका शिकार बनी प्रजाको कैसे विद्रोही बननेका सन्देश दे सकता है ? तो आचार्य, आपको इस अन्धरात्रिसे निकलनेका कोई रास्ता भी सूझता है ? 'रास्ता १ हरएक रोगकी दवा होती हैं, इरएक विपत्से निकलनेका कोई मार्ग होता है; किन्तु इस अन्धरात्रिसे निकलनेका रास्ता या इस वैतरणीका सेतु एक पीढ़ीमें नहीं बन सकता, मित्र ! क्योंकि इसके बनानेवाले हाथ इतने कम हैं और उधर अन्धकारका बल ज्ञवरदस्त है।'

  • वेदप्रामाण्य कर्मचित्तृवादः स्नाने धर्मेच्छा जातिवादविलेपः । सन्तापारम्भः पापहानाय चेति ध्वस्तप्रज्ञान पचलिगानि जाइये ॥

-प्रमाणवात्तिक