पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२४८

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दुर्मुख २४७ ‘ह, कहनेके लिए। जिस दिन मैं यह घोषित करूंगा, उसी दिन मेरे प्रतिद्वन्द्वी भड़काकर तुफान खड़ा करेंगे कि यह तो सनातनसे चले आए सेतुको तोड़ रहा है ।। | 'क्या बोधिसत्व-जीवनकी महिमाके बारे में अहर्निश जो उपदेश हो रहे हैं, उनका किसीपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ रहा है ? मैं समझता हूँ महाराज, कुछपर असर ज़रूर पड़ा है, और यदि बोधिसत्वको भाँति अपना सब कुछ अर्पण करनेके लिए तैयार हो जायें, तो आपके पीछे चलनेवाले वहुत-से मिल जायेंगे | राज्यके भीतरका सवाल ही नहीं, हमारे परम भट्टारक देव भी नाराज़ हो जायेंगे ।। ‘शीलादित्य इर्ष । जिन्होंने 'नागानन्द' नाटकमें बोधिसत्व-जीवनका भव्य चित्र चित्रित किया है ?" । 'हो, चला आया सेतु तोड़ना किसीके बसकी बात नहीं है।' 'यही बात यदि तथागत समझते हैं यही बात यदि आर्य अश्वघोष समझते हैं यही बात यदि आर्य नागार्जुन समझते हैं । ‘उनको साहस था, तो भी सेतू तोड़नेमें वह भी दूर तक नहीं जा सके। ‘दूर तक नहीं, नज़दीक तक ही बढिए, महाराज ! कुछ आप बढ़ेंगे, कुछ आपके आगे आनेवाले बढ़ेंगे।' ‘क्या मुझे आप अपने मुंहसे कायर कहलाकर ही छोड़ेंगे ? ‘कायर नहीं, किन्तु यह ज़रूर कि धर्म हमारे लिए ढोग है। 'मेरे दिल से पूछिए, तो मै “हाँ कहूंगा; किन्तु यदि जीभसे यूछिए, तो वह या तो साफ नहीं कहेगी, अथवा गैगी बन जायगी । ब्राह्मणों के धर्मसे मुझे नफरत है । वस्तुतः कामरूप-नृपति जैसे कितने ही दिलके भले लोगों को कायर बनाने का दोष इसी ब्राह्मणधर्मको है। जिस दिन यह धर्म इस देशसे उठ जायगा, उस दिन पृथिवीका एक भारी कलंक उठ जायेगा । नालन्दामें आए विदेशी