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वोल्गा से गंगा


ली थी, किन्तु पाषाण-परशुओं ने काफी काम किया था, इसमें शक नही। और इतना बड़ा झोपड़ा? हाँ, इसी में सारा निशा-जन— निशा नामक किसी पुराने काल की स्त्री की सन्तान —रहता है। सारा जन एक छत के नीचे रहता, एक साथ शिकार करता, एक साथ फल या मधु जमा करता है। सारे जन की एक नायिका है, सारे जन का संचालन एक समिति करती है। संचालन– हाँ, इस संचालन से जन के व्यक्तियों के जीवन का कोई अंश छूटा हुआ नहीं है। शिकार, नाचना, प्रेम, घर बनाना, चमड़े का परिधान तैयार करना सभी कामों का संचालन जन-समिति (कमेटी) करती है, जिसमें जन-माताओं का प्राधान्य है। निशाजन के इस झोपड़े में १५० स्त्री-पुरुष रहते हैं। तो क्या यह सब एक परिवार हैं? बहुत कुछ, और अनेक परिवार भी कह सकते हैं, क्योंकि माँ के जीते समय उसकी सन्तानों का एक छोटा परिवार-सा बन जाता है, ज्यादातर इस अर्थ में कि उसके सारे व्यक्ति उस माँ के नाम से पुकारे जाते हैं— उदाहरणार्थ दिवा की माँ न रहे और वह कई बच्चों की माँ हो जाये, तो उन्हें दिवा-सूनु (दिवा पुत्र) और दुहिता (दिवा-पुत्री) कहेंगे। इतना होने पर भी दिवा की सन्तान की अपनी सम्पत्ति (मांस, फल) नहीं होगी। सभी जन-स्त्री, पुरुष दोनों साथ सम्पत्ति अर्जित करता है, साथ उसे भोगता है; न मिलने पर साथ भूखे मरता है। व्यक्ति जन से अलग अपना कोई अधिकार नहीं रखते। जन की आशा, जन का रिवाज पालन करना उनके लिए उतना ही आसान मालूम पड़ता है, जितनी अपनी इच्छा।

और झोपड़ा? यह अस्थायी झोपड़ा है। जब आस-पास के शिकार चले जायेगे, आस-पास कन्द मूल-फल न रहेंगे, तो सारा जन भी दूसरी जगह चला जायेगा। सर्दियों के तजर्बे उन्हें मालूम है कि किसके बाद कहाँ शिकार पहुँचते हैं। यहाँ से चले जाने पर यह फूस गिर-पड़ जायगा, किन्तु लकड़ी या पत्थर की दीवारें कई साल तक चली जायेगी। नई जगह जा इन दीवारों को वे फूस से ढाँक नया दम ( घर ) बनावेंगे,