पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५१

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१५० चोलासे गंगा इस्लामने पहले सारी दुनियाको अपने अरबी कबीलोंकी विस्तृत रूप देना चाहा और उसके साथ कबीलोंकी सादगी, समानता और आतुभावको अपने अनुयायियोंके भीतर भरना चाहा । इस अवस्थाले वैदिक आर्योंके पूर्वज तबसे तीन हजार वर्ष पहले ही गुजर चुके थे। गुजरा युग फिर लौटना असम्भव है। इसलिए जैसे ही इस्लाम कबीलों से श्रागेकी सीढ़ीपर रहनेवाले सामन्तशाही मुल्कोंके सम्पर्कमे आया, वैसे ही उसकी तलवार के सामने इनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता विलीन हो गई, उसी तरह उनके सम्पर्क में आते ही इस्लामी समाजके कबीलेपनका स्वरूप ख़त्म हो गया । इस्लामका प्रधान शासक कितने ही समय तक केवल उसके संस्थापकका खलीफ़ा--उत्तराधिकारी-कहा जाता था, चाहे वह वस्तुतः सुल्तान-निरंकुश राजा--होता । किन्तु अब तो नामसे भी सुल्तान कहलानेवाले अनेक आ मौजूद हुए थे, जिन्हें इस्लाम के पवित्र कबीले, उसकी सादगी, समानता, भ्रातृभावसे कोई मतलब न था । लेकिन नए मुल्कोंके जीतने में तलवार चलानेवाले सिपाहियोंकी ज़रूरत थी, और यह तलवार अब अरबी नही गैर-अरबी थी। इन सिपाहियों को सुल्तानके नामपर लड़नेके लिए उतना उत्साहित नहीं किया जा सकता था, इसीलिए स्वर्गकी न्यामतोंके प्रलोभनके साथ पृथिवीकी न्यामतोंमें उन्हें हिस्सेदार बनाया गया । लूटकै माल तथा तातारी बन्दियोंमें उनका इक़ था, नई जीती भूमिपर बसनेका उनका स्वत्व था, अपने पुराने पीड़कों और स्वामियोंसे मुक्त होने तथा उनका अस्तित्व तक मिटा देनेका उनका हक्क था । फ्राजितोमॅसे विजेताओं झण्डको अपना बनाकर आगे बढ़नेवाले इतने सैनिक कृमी किसीको नहीं मिले थे। ऐसी सैनासै–जो हमारे भीतरसे ही अपने लिए लड़ने वाली सेना तैयार कर सके--मुकाबिला करना आसान काम न था। इर्षको मरे सौ वर्ष भी नहीं गुजरे थे कि सिन्ध इस्लाम शासनमें चला गया । बनारस और सोमनाथ (गुजरात) तककै भारतको इस्लामी तलवारका तजुर्बा हो चुका था। । इस नए ख़तरेसे बचनेकै