पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५२

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चक्रपाणि २५१ लिए नए तरीकेकी ज़रूरत थी; किन्तु हिन्दू अपने पुराने ढर्रेको छोड़ने लिए तैयार न थे। सारे देशके लड़नेके लिए तैयार होनेकी जगह वही मुट्ठीभर राजपूत ( पुराने क्षत्रिय तथा शादी ब्याह करके उनमें शामिल हो जानेवाले शक, यवन गुर्जर आदि ) भारतके सैनिक थे, जिन्हें बाहरी दुश्मनोंसे ही फुर्सत न थी, और राजवंशोंकी नई-पुरानी शत्रुताओं के कारण आखिर तक भी वह आपसमें मिलनेके लिए तैयार न थे। 'महाराज, चिन्ता न करे । सिद्ध गुरुने ऐसी साधना शुरू की है, जिससे कि तुर्क सेना हवामे सूखे पत्तों की भाँति उड़ जायगी ।। 'गुरु मित्रपाद ( जगन्मित्रानन्द की मुझपर कितनी कृपा है ? जब-जब मुझपर, मेरे परिवार पर, कोई संकट आया, गुरु महाराजने अपने दिव्य-बलसे बचाया । ‘महाराज, सिद् गुरुने हिमालयके उस पार भोट देशसे कन्यकुब्जके सकटको देखा। उन्होंने इसीलिए मुझे आपके पास भेजा है। 'कितनी कृपा है । 'कहा है, तारिणी ( तारादेवी ) महाराजकी सहायता करेगी। तुर्केकी चिन्ता न करे । 'तारामाईपर मुझे पूरा भरोसा है। तारिणी ! आपच्छरण्ये ! माँ, म्लेच्छोंसे रक्षा कर ।' | वृद्ध महाराज जयचन्द्र अपने इन्द्र-भवनके समान राज-प्रासादमें एक कर्परश्वेत कोमल गद्देपर बैठे हुए थे। उनकी अग्रलमें चार अति सुन्दरी तरुणी रानियाँ बैठी थीं, जिनके गौर मुखपर भ्रमर-से काले केश पीछेको ओर द्वितीय सिर बनाते हुए जूड़े के रूपमे बँधे थे। चूडामणि, कर्णफूल, अंगद, कंकण, हार, चन्द्रहार, मुक्ताहार, कटिकिंकिणी, नूपुर आदि नाना स्वर्णरत्नमय आभूषण उनके शरीर से भी भारी थे। उनके शरीरपर सूक्ष्म साझी और कंचुकी थी; किन्तु जान पड़ता था, वें शरीरके गोपनके लिए नहीं, बल्कि सुप्रकाशनके लिए थीं । कंचुकी स्तनों