पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५३

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२५१ वोल्गासे गंगा के उभार और अरुणिमाको सुन्दर रीतिसे दिखलाती थी । उससे नीचे सारा उदर नाभि तक अनाच्छादित था। सारी उस और पैडली की आकृति और वर्णको झलकाती थी। उनके केशोंके सुगन्धित तैल और नवपुष्पित यूथिका : जूही ) के कारण सारी शाला गम-गर्म कर रही थी । रानियोके अतिरिक्त पचाससे अधिक तरुणी परिचारिकाएँ थीं, जिनमे कोई चँवर, मोर्छल या व्यजन ( पंखे ) झल रही थी; कोई पानदान लिए, कोई दर्पण और कंधी लिए, कोई सुगन्धित जल की झारी लिए, कोई काँचके सुराड़ और कनक चषक लिए, कोई साँपके केचुलीकी तरह शुभ्र निर्मल अंग-पोंछन लिए खड़ी थी । कितनी ही मृदंग, सुरज, वीणा, वेणु आदि नाना वाद्यको लिए बैठी थीं और कुछ जहाँ-तहाँ स्वर्ण-मण्डित दण्ड लिए खड़ी या टहल रही थी। सिवाय आगन्तुक मित्रपादके शिष्य शुभाकर भिक्षु और राजा जयचन्दके वही सभी नारियाँ थी और अभी तरुणी वयस्क सुन्दरियाँ । । भिक्षुने महाराजसे विदाई ली । रानियों और राजाने खड़े होकर अभिवादन किया। अब यहाँ नारीमयं जगत् था । जयचन्द्र वृद्ध थे; किन्तु उनके अर्द्ध-श्वेत लम्बे-लम्बे केश बीचमें माँग निकाल पीछेकी और जिस प्रकार बाँधे हुए ( हिफालबद्ध ) थे, बड़ी-बड़ी आँछ जिस प्रकार सँवारी हुई थीं, उनके शरीरके आभूषणों और वस्त्रोंकी जिस प्रकार सज्जा थी, उससे पता चलता था कि वह यौवनको अनसित ( असमाप्त ) समझते थे। उनके इशारे पर चषकको एक परिचारिकाने झुककर महाराजके सामने किया और रानीने ले, भरे प्यालेको महाराज के सामने पहुँचाया। उन्होंने उसे रानीके ठसे लगाकर कहा--- राजन्न । राजलक्ष्मी ), मेरी तारा, तुम्हारे उच्छिष्ट किए बिना मैं कैसे इसे पान कर सकता हैं ? | रानीने ओठों और जीभकी नोकको भिगो लिया । राजाने उस प्रसादको पान किया । फिर उनकी एक-एक ताराओंने उन्हें प्रसाद प्रदान किया। आँखों में लाली आई । तुरस्क ( तुर्क )-चिन्ता चेहरेसे