पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२५९

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२५८ धौलपासे गंगा 'विश्वास करेगी, जो कर ही रही है, महाराज ! मैने अपने ग्रन्थोंमें अपनी समाधि लगा ब्रह्म-साक्षात्कारकी बात भी लिख दी है। 'तुम्हारे माध्यमिक दर्शनमे ब्रह्म और उसके साक्षात्कारकी भी गुंजायश है, कवि । 'महाराज, वहाँ क्या-क्या गुंजाइश नही है । | 'प्रजाकी अन्धी अखें मौजूद रहनी चाहिएँ, उन्हें सबका साक्षाकार कराया जा सकता है ।। तो महाराज, श्रापका धर्म परसे विश्वास उठ गया है । इसे मैं नहीं जानता, कवि ! मुझे मालूम ही नहीं पड़ता, किस वक्त विश्वास आता है और किस वक्त चला जाता है। तुम्हारे धर्मात्मा ब्राह्मणोंके उपदेशों-चरणोंको सुन-देखकर मेरे लिए कुछ तै करना मुश्किल है। मैं तो यही जानता हूँ कि दान-पुण्य, देवालय-सुगतालयका निर्माण आदि जो कुछ धर्म कहता हो, करो; किन्तु नकद जीवनको हाथसे न जाने दो।। | प्रेम और धर्मसे चलकर उनकी बात राज काज पर आई ! श्रीहर्षने कहा-क्या सचमुच महाराजने पृथिवीराजका साथ देनेसे इन्कार कर दिया है ? | मुझे क्या ज़रूरत है उसका साथ देनेकी १ उसने खुद तूफानसे झगड़ा मोल लिया हैं खुद भुगतेगा ।' • 'मेरी भी सम्मति यही है, महाराज ! यह चक्रपाणि झूठमूठ परेशान करता है। । उसका काम चिकित्सा करना - है; सो उसमें तो कुछ नहीं बन पड़ता । तीन बार बाजीकरण-चिकित्सा, की; किन्तु सब निष्फल ! और अब चला है राज-काजमे सलाह देने । । । । (:.नहीं महाराज, वह मूर्ख है।'व्यर्थ ही युवराजने उसे सिरफर चढा रखा है।