पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२६

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दिवा उसमें एक स्थान सामान रखनेका होगा, एक खाना पकानेको-जन हाथसे मिट्टीका बर्तन बनाता है, खोपड़ीको भी बर्तनके तौर पर इस्तेमाल करता है। माँस कभी कच्चा खाता है, कभी ताजेको भूनता है, सूखेको भूनना जन निषिद्ध समझता है। वोल्गाके इस भागकै जंगलो में मधु बहुत है, इसीलिए मध्वद (मधु-भक्षी रीछ ) भी यहाँ बहुत हैं। निशा-जन मधुको बहुत पसंद करता है, मधुके तौर पर भी और सुराके तौर पर भी। | और यह संगीत ? हो, स्त्री और पुरुष मधुर स्वरसे गा रहे हैं। परिधानके चमड़े को पीटनेमें तो नहीं लगे हुए हैं ? जन हर एक कामको सम्मिलित ही नहीं करता, बल्कि उसे मनोरजक ढंगसे करता है—गीत सम्मिलित कामका एक अंग है, संगीतमें वह कामके श्रमको भूल जाता है। किन्तु, यह गीत कामवाला गीत नहीं मालूम होता। यहाँ एक बार स्त्रियोंके कंठसे सरस कोमल राग निकल रहा है, एक बार पुरुषों के कंठसे गंभीर कार्कश ध्वनि । चलें देखें। झोपड़ेमें किन्तु उससे विभक्त उसके एक भागमें उनके नर-नारीबच्चे, बूढ़े, जवान,—इकट्ठा हुए हैं। बीच में छत कटी हुई है, जिसके नीचे देवदारुके काष्ठकी आग जल रही है। स्त्री-पुरुप बड़े रागसे कुछ गा रहे हैं। उसमे जो शब्द सुनाई देते हैं, वह हैं 'ओ---गू-ग -----या-- | क्या वह इसी अग्निकी प्रार्थना कर रहे हैं ? देखो जन-नायिका तथा जन-समितिके लोग आगमें माँस, चर्बी, फल और मधु हाल रहे हैं । अबके जनको शिकार खूब मिले, फल और मधुकी भी बहुतायत रही, पशु तथा मानव शऑसे जन-सन्तानको हानि नहीं पहुंची, इसी लिए आज पूर्णिमा के दिन जन अग्निदेवके प्रति अपनी कृतज्ञता और पूजा अर्पित कर रहा है । अभी जननायिकाने मधु-सुराका एक चषक (ध्याला ) आगमें होला, लोग खड़े हो गये । हाँ, सभी नंगे हैं, वैसे ही जैसे कि पैदा हुए थे। जाड़ा नहीं है, इस गर्मी में वह अपने चमड़े