पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२७१

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वोल्गासे गगा "हिन्दू इस्लाम की तौहीन करते फिरते हैं। आगे उनका हौसिलो और बढ़ सकता हैं । तौहीन बंद होनी चाहिये । तौहीन १ क्या कुरान-पाकको पैरों तले रौदते हैं ? इतनी हिम्मत कहाँ हो सकती है ? "क्या मस्जिदोंको नापाक करते हैं ? यह भी नहीं हो सकता।" *क्या रसूल-खुदाको सरे-बाजार गालियाँ सुनाते हैं । “नहीं जहाँपनाह ! बल्कि, जो हमारे सूफियोंके संसर्गम आये हैं। वे तो रसूल-खुदाको भी ऋषि मानते हैं। लेकिन, वे हमारे सामने कुफ्रकी रस्में अदा करते हैं।" जब उन्हें आप काफिर मानते हैं, तो कुफ्रकी रस्म के लिये शिकायत क्यों है ? मेरे चचा सुल्तान जलालुद्दीनने मेरी तरह तै नहीं कर पाया था, कि उन्हें अपने को स्थायी हिन्दी शासक समझना चाहिये, था जबतक सारा हिन्द मुसलमान न हो जाय, तब तकके लिये अस्थायी । किन्तु उन्होंने एक बार आपकी तरहके प्रश्नकर्ताको क्या जवाब दिया था, मालूम है ? "नहीं हुजूर-बाला !' “कहा था-‘बेवकूफ त देखता नहीं कि हिन्दू रोजाना मेरे महलके सामनेसे शंख बजाते और ढोल पीटते हुए जमुना किनारे अपनी मूर्तियोंको पूजने जाते हैं । वे मेरी आँखोंके सामने अपनी कुफ्रकी रस्मे मनाते हैं। मेरी और मेरे शाही रोबकी हतक करते हैं । मेरे दीनके दुश्म । हिंदू } हैं, जो मेरी राजधानीमें मेरी आँखों के सामने ऐशोइशरत और शानो-शौकतसे जिदगी बसरकर रहे हैं, और दौलत और खुशहाली के कारण मुसलमानोंके साथ अपनी शान और घमहको जाहिर करते हैं। शर्म है, मेरे लिये मैउनको उनकी शैशौ-इशरत और फख-व-गरूरमे छोड़े हुए हैं और इनोसेतिनकौमर सत्र किये हैं।