पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२७६

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बाबा नूरदीन ર૭૫ सिर और भौहें घुटी हुई थीं। मूंछ दाढी बहुत छोटी इफ्ते भरकी बनी हुई थी। उसके हाथमे काठकी माला थी । आश्विनकी पूर्णिमाका दिन थी, गाँवके नरनारी खाना, कपड़ा तथा दूसरी चीजें लाकर काषायधारी पुरुषके सामने रख (चढ़ा कर हाथ जोड़ रहे थे। पुरुष हाथ उठा स्मित सुखसे उन्हें आशीर्वाद दे रहा था ।। यह क्या है ? हिल्साका पुराना बौद्ध मठ तो नष्ट हो गया । हाँ, . किन्तु श्रद्धा मठोसे बाहर भक्तों के दिलोंमे हुआ करती हैं। आज हिल्साके काषायधारीबावाको देख क्या बौद्ध भिक्षु छोड़ और कुछ कह सकते हैं । वह अविवाहित है, यही नहीं उसके चार पहिलेके गुरु भी अविवाहित काषायधारी थे । हिन्दू-या बौद्ध–से मुसल्मान वने दस पाँच कारीगर-घरोंमें इसे खानकाह कहकर पुकारा जाता है, ब्राह्मण और कुछ बनिये भी इसे मठ नहीं कहते ; किन्तु बाकी गाँवके लिये यह अब भी विहार-मठ-हैं। उनके बाबाको पहिलै भी जात-पत न होती थी और इन नये बाकी भी जात नहीं है। उन्हीं की भाँति यह भी काषाय पहनते, अविवाहित रहते हैं, और बीमार होने पर अब यही लोगों के भूतोंको’ झाड़ते हैं, मरण और शोकके समय यही अलख-निरंजन-निर्वाणका उपदेश दे सान्त्वना प्रदान करते हैं। इसीलिये अजि शरत्पूनोकी प्राचारणाके दिन लोग पहिलेकी भाँति इन मुस्लिम भिक्षुओंको भी पूजा चढ़ा रहे हैं। और कारीगर मुसल्मान जैसे पहिले उन बौद्ध भिक्षुओंको अपना पूज्य गुरु मानते थे, उसी तरह अब अपने बाबा और उनके काषायधारी चेलोंको मानते हैं। खानकाहके पुराने महन्तों ( पीरों की समाधियों ( कृत्रों की बन्दना कर गाँव वाले धीरे-धीरे चले गये । रातके बीतनेके साथ दूधसी चांदनी चारो ओर छिटक गई । उसी वक्त कारीगर घरोकी अोरसे दो आदमियोंके साथ कोई आदमी अाँगनकी ओर आता दिखाई पड़ा । नज़दीक आनेपर वाबाने मौलवी अबुल्-अलाईको पहिचाना। उनके सिरपर सफ़ेद अमामा, शरीरपर लम्बा चरेगा, पैरोंमें जूतोंसे ऊपर