पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२७९

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३७८ चोलासे गंगा "तो हमारी सधवा मुसल्मानिनौंका सिंदूर तो जाकर धुलवाइये। * धुलवायेगे ।' बाबाने हँसकर कहा–'सिंदूर धुलवायेगे जीतेजी । जुम्मन | बताओ बेटा ! क्या तुम्हारी सलीमा मान लेगी इसे ।” नहीं बाबा ! मौलवी साहेबको मालूम नही है। सिंदूर विधवाको घोया जाता है। पास ही खड़े जुम्मनने कहा बाबाने अपनी बातको जारी रखते हुए कहा-क्षमा करना मौलवी अनुल-अलाई । इम सूफी न किसी सुल्तानके टुकड़ों पर यहाँ आकर बसे, न किसी अमीरके दान पर । हम कफनी और लंगोटी पहनकर आये । किसी हिंदूने हमारे ऊपर तलवार नहीं उठाई। इसी खानकाहको ले लीजिये, यह पहले समनियोंका विहार था। मेरे पाँचवें दादा गुरु समनी ( बौद्ध ) फकीरोंके चेले थे। बनावटीं नहीं, वह बुखारासे आये थे और उनके तसव्वुफसे खिचकर चेला बने थे । तसव्वुफ सब जगह एक है, बाहरी चोलेसे उसका झगड़ा नहीं, वह चोला समनीका भी हो सकता है, हिंदूका भी, मुसलमानका भी। हमारे उन गुरुके बाद यह खानकाह मुसल्मान नाम रखनेवाले फकीरोकी है। हमने चोला बदलने पर जोर नहीं दिया, हमने प्रेम सिखलाया, जिसका फल देख रहे हैं, गाँव-गाँवमे हमसे घृणा रखनेवालौकी कमी | पंडितोंने जड़ता दिखाई, वह प्रेमके पथको नही पहिचान सके, जैसे आप लोग नही पहचान सके, उसीसे जुम्मनके बाप-दादको हिंदू नहीं, मुसलमान नाम रखना पड़ा, और अब उनके यहाँ आपकी भी खातिर होती है । चैतका मास बीत चुका था। जिन वृक्षोंमें नये-नये पत्ते लगने वाले थे, लग चुके थे । आम अबकी साल अच्छा आया था; इसलिये उसके पुराने ही पते रह गये थे। उनके नीचे खलिहान लगे हुए थे, जहाँ दो पहरकी गर्मी और हवामें भी किसान देवरी कर रहे थे। उसी वक्त कोई भुसाफिर थका और धूपसे पसीने-पसीने आकर उन्हीं खलिहानोंमें एक