पृष्ठ:शशांक.djvu/१३४

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तरला- ( ११४ ) गई जिसने देखते ही यही कहना आरंभ किया । तरला ने कुछ हँसकर उचर दिया "कल मैं अभिसार को गई थी। तुम्हारा दूतीपन करते करते मैंने भी अपने लिए एक नवीन नागर ढूँढ़ लिया" "तेरे मुँह में आग लगे । पहले यह बता कि तू क्या कर आई।" -करूँगी और क्या ? अपने मन का नवीन नागर मिलने पर जो सब करते हैं वही मैंने भी किया। रात भर कुंज में रहकर सबेरे आँख मलती मलती घर आ रही हूँ। तुममें यही तो बुराई है कि सच बात कहने से चिढ़ जाती हो। मैं दासी हूँ तो क्या मेरी रक्त मास की देह नहीं है, मेरे मन में उमंग नहीं है ? भगवान् ने क्या प्रेम तुम्ही लोगों के लिए बनाया है ? रास्ते में कुँवरकन्हैया मिल गए, तब उनकी बात टालकर कैसे चली आती ? मेरा वयस् भी अभी कुछ अधिक नहीं है । बहुत हूँगी, तुमसे दो एक बरस बड़ी हूँगी । अभी न मेरे दाँत टूटे हैं, न बाल पके हैं। युवती-अरे ! तू मर जा । यमराज के यहाँ जा । न जाने यमराज क्यों कहाँ भूले हुए हैं ? यदि तुझे नागर ही मिल गया तो फिर लौटकर आई क्या करने ? मुझे खबर देने ? तरला, अब इधर उधर की बात छोड़, ठीक ठीक कह कि क्या कर आई। मुझसे अब विलंब नहीं सहा जाता। तरला-तुम्हारे ही लिए तो मैं लौट आई। बहुत उतावली न करो। चलो, भीतर चलो। युवती तरला के कंधे पर हाथ रखे घर के भीतर गई। एक कोठरी में पहुँचकर तरला ने उसके किवाड़ भीतर से बंद कर लिए । युवती ने उसके गले में हाथ डालकर पूछा "उनसे मेंट हुई ?" GS"