पृष्ठ:शशांक.djvu/२२

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( २ ) नावें इकट्ठी थीं। उस घोर प्रचंड जल धारा में नाव छोड़ने का साहस माझियों को नहीं होता था । वृद्ध सैनिक खड़ा-खड़ा यही देख रहा था। इतने में बालक बोल उठा “दादा ! ये लोग आज पार न होंगे क्या ?" वृद्ध ने उत्तर दिया “नहीं, भैया ! वे अँधेरे के डर से नावें तीर पर लगा रहे हैं ।" बालक कुछ उदास हो गया; वह खिड़की से उठकर कमरे में गया । वृद्ध भी धीरे-धीरे उसके पीछे हो लिया । अब चारों ओर अँधेरा फैलने लगा; सोन-संगम पर धुंधलापन छा गया। तीर पर जो नावें बंधी थीं.उन पर जलते हुए दीपक दूर से जुगनुओं की पंक्ति के समान दिखाई पड़ते थे । कमरे के भीतर चाँदी के एक बड़े दीवट पर रखा हुआ बड़ा दीपक सुगंध और प्रकाश फैला रहा था। कमरे की सजावट अनोखी थी; संगमर्मर की बर्फ सी सफेद दीवारों पर अनेक प्रकार के अस्त्रशस्त्र टँगे थे। दीपक के दोनों ओर हाथीदाँत जड़े दो पलंग थे। एक पलंग पर सोने का एक दंड रखा था। दोनों पलंगों के बाच सफेद फर्श थी । बालक जाकर पलंग पर बैठ गया; वृद्ध भी एक किनारे बैठा । कुछ काल तक तो बालक चुप रहा, फिर बालस्वभाव का चपलता से उठ खड़ा हुआ और सुवर्ण दड को उलटने पलटने लगा। वृद्ध घबराकर उसके पास आया और कहने लगा "भैया, इसे मत उठाना, महाराज सुनेंगे तो बिगड़ेंगे ।" बालक ने हँसते-हँसते कहा “दादा, अब तो मैं सहज में समुद्रगुप्त का ध्वज उठा सकता हूँ, अब वह मेरे हाथ से गिरेगा नहीं।" बालक ने क्रीड़ावश पाँच हाथ लंबे उस भारी हेमदंड को उठा लिया । वृद्ध ने हँसते हँसते कहा "भैया ! वह दिन आएगा जब तुम्हें घोड़े की पीठ पर इस गरुड़- ध्वज को लेकर युद्ध में जाना होगा।" बुड्ढे की बात बालक के कानों तक न पहुँची, वह उस समय बड़े ध्यान से सुवर्ण दंड को देखने-भालने में लगा था । सुवर्ण दंड के ऊपर अनेक प्रकार के बेलबूटों के बीच कुछ अक्षर लिखे थे। बालक उन्हें पढ़ने की चेष्टा कर रहा था। दंड के