पृष्ठ:शशांक.djvu/२४०

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(२२२) संचित राजस्व का युवराज के सामने ढेर लगा दिया। लाख से ऊपर सुवर्णमुद्रा पाटलिपुत्र भेजी गई। पराजित सामंतों की दशा सुनकर मेघनाद के उस पार के सामंत भी धीरे-धीरे महानायक के पास दूत भेजने लगे। मेघनाद के पूर्व तट तथा समुद्र से लगे हुए समतट प्रदेश पर जिन सामंत राजाओं का अधिकार था वे अधिकतर महायान शाखा के बौद्ध थे और ब्राह्मणों के घोर विद्वषी थे। पश्चिम तट के आसपास के सामंत राजा मी बौद्ध थे पर ब्राह्मणों से उन्हें द्वष नहीं था क्योंकि वे बहुत काल से ब्राह्मणों के साथ रहते आए थे। उनके भाव कुछ उदार थे। उस समय वज्राचार्य, शक्रसेन, संघविर बंधुगुप्त आदि बौद्धसंघ के नेता वंगदेश में पहुँच गए थे। उनके उद्योग से विद्रोहियों को थाने श्वर से बहुत कुछ धन और उत्साह मिलता था। कान्यकुब्ज में बुद्ध- भद्र और स्थाण्वीरश्वर में अमोघरक्षित, शक्रसेन और बंधुगुप्त आर्य्या- वर्च में एकछत्र बौद्ध राज्य प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर रहे थे। वंग और समतट प्रदेश के सामंतों को दूत भेजते देख युवराज ने सोचा कि अब बहुत सहज में वंगदेश पर अधिकार हो जायगा पर व्यवहारकुंशल वृद्ध महानायक का ऐसा विश्वास नहीं था। वे जानते थे कि इस मेल- नाद के पश्चिम तट पर तो केवल सामंत राजा ही विद्रोही हो गए हैं पर नद के उस फर के सामान्य किसान तक गुप्त साम्राज्य के विरोधी हैं । मेघनाद के तट पर शिविर में यशोधवलदेव को संवाद मिला कि उत्तर में कामरूप के राजा खुल्लमखुल्ला विद्रोहियों की सहायता कर रहे कामरूप के भगदत्तवंशीय राजाओं के साथ गुप्तराजवंश का बहुत दिनों से झगड़ा चला आता था । इस झगड़े के कारण वंग और काम- रूप की सीमा पर का बहुत-सा उपजाऊ प्रदेश उजाड़ जंगल हो रहा था । सम्राट महासेनगुप्त ने युवावस्था में कामरूपराज सुस्थितवर्मा को परा