पृष्ठ:शशांक.djvu/३४४

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(३२५) अभिवादन करके बोला “महाराजाधिराज, महाबलाध्यक्ष ने अभी हम लोगों को विद्रोही कहा है। पर हम लोग विद्रोही नहीं हैं। जिन्होंने शंकरनद और मेघनाद के किनारे श्रीमान् की अधीनता में युद्ध किया है वे कभी विद्रोही नहीं हो सकते । वाराणसीभुक्ति की सारी सेना समतट, वंग और कामरूप की लड़ाई में महानायक यशोधवलदेव और सम्राट के अधीन अपना रक्त बहा चुकी है। वह महानायक नरसिंह- दत को नहीं भूली है। उन्हीं की आज्ञा से उसने विश्वासघातक सेना- नायकों को बंदी करके चरणाद्रिगढ़ को शत्रुओं के हाथ में पड़ने से बचाया है। अनंत०-क्या कहा? दूत-हम लोगों ने महानायक नरसिंहदत्त की आज्ञा से महा- कुमार मांधवगुप्त और मौखरिकुमार अवंतिवर्मा से धन पानेवाले विश्वासघाती नायकों को बंदी करके चरणाद्रिगढ़ पर अधिकार कर लिया है। देव ! उन्हींके आदेश से बीस सहस्र अश्वारोही प्रतिष्ठानदुग की ओर दौड़े हैं । महाराजाधिराज को स्मरण हो या न हो, एक दिन बंधुगुप्त की तलवार महाराज के सामने ही मेरे सिर पर पड़ी थी। उसका चिह्न अब तक है। सैनिक ने शिरस्त्राण हटाकर घाव का चिह्न दिखाया। अनंतवर्मा तुरंत उसे आलिंगन करके बोले "मैं पहचान गया, तुम वही गौड़ीय नाविक हो । नाविक ने तलवार मस्तक से लगाकर कहा "महाराजा- धिराज ! हम लोग पुराने विश्वस्त सेवक हैं । विद्रोही नहीं हैं, तक्षदत्त के पुत्र की अधीनता में हम लोग बहुत युद्ध कर चुके हैं, उन्हें हम लोग जानते हैं। उन्होंने कहला भेजा है कि सम्राट यदि सेना सहित बढ़ेंगे तो मैं थानेश्वर की ओर प्रस्थान करूँगा नहीं तो- अनंत०-~नहीं तो-