पृष्ठ:शशांक.djvu/३६९

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(३५० ) "बेधड़क कहो। "महाराज ! अभिसार को निकली हूँ"। "मार डाला ! क्या वीरेंद्रसिंह से जी भर गया ?" "वे तो अब बुड्ढे हो गए । जैसा समय आया है उसके अनुसार और न सही तो परोपकार के लिए ही दो एक रसिक नागर अपने हाथ में रहें तो अच्छा है। "तरले ! बालों में मैं तुम से पार पा जाऊँ ऐसा वीर मैं नहीं हूँ। तुम्हारी बात कुछ समझ में न आई। "महाराज ! जिन्हें भूख तो है पर लजा के मारे शिकार नहीं कर सकते ऐसों के लिए ही मुझे कभी कभी बाहर निकलना पड़ता है। "तुमने जिसका शिकार किया है क्या वह कुछ नहीं बोलता ?" "महाराज ! उसकी कुछ न पूछिए" | "बताओ तो किस पर लक्ष्य करके निकली हो?" "आप पर। "मुझ पर ?" "हाँ महाराज !" "यह कैसी बात, तरलो ?" "महाराज- "तरले ! जान पड़ता है तुम कुछ भूलती हो" । 'नहीं महाराज ! मैं भूलती नहीं हूँ"। "तो फिर तुम क्या कहती हो?" "मैं यही कहती हूँ कि कोई आपके ऊपर मर रहा है। “मेरे ऊपर ? तरला, तुम क्या सब बातें भूल गई ?" "नहीं महाराज !" "तो फिर " 66 . " -