पृष्ठ:शशांक.djvu/३७०

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पल रहे हैं- ( ३५१) "क्या कहूँ महाराज ! कौन किस पर क्यों मरता है, कौन कह सकता है ?" "उसे क्या संभव असंभव का भी विचार नहीं होता ? "महाराज ! कहते लजा आती है, मन्मथ के राज्य में संभव असं- भव का विचार नहीं है। और फिर हमलोगों की-जो आपके अन्न से -सदा सर्वदा यही इच्छा रहेगी कि राजभवन में पट्टमहा- देवी आएँ और हमलोग उनकी सेवा करके जन्म सफल करें"। "अब असंभव है, तरला !" "महाराज! तो क्या-" "तो क्या, तरला ?" "तो क्या महाराज अपना जीवन इसी प्रकार बिताएँगे? आपके जीवन का अभी एक प्रकार से सारा अंश पड़ा हुआ है"। "तरला ! मैंने यही स्थिर किया है। "महाराज ! फिर साम्राज्य का उत्तराधिकारी-" "क्यों, माधव का पुत्र ?" "हार गई, महाराज ! पर अबला. की प्राणरक्षा कीजिए। "वह है कौन, तरला ?" "जब किसी प्रकार की आशा ही नहीं तब फिर और बातचीत क्या । महाराज एक बार उससे मिल ही लें"। "वह कहाँ है ?" "यहीं है। "यहीं हैं. इसी रोहिताश्वगढ़ में ?" "हाँ महाराज ! इसी गढ़ के परकोटे की छाया में"। तरला आगे आगे चली । शशांक को एक स्वप्न सा जान पड़ा। वे उसके पीछे पीछे चले। दुर्ग के प्राकार की छाया में एक और रमेणी