पृष्ठ:शशांक.djvu/३८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३६५ ) परमेश्वर हो, नहीं तो सारा संसार यदि एक ओर होता तो भी मेरे हाथ से आपको बचा नहीं सकता था। “पर महाराज! आप अबध्य हैं, आप हमारे देवता हैं क्योंकि आप महाराजाधिराज समुद्रगुप्त के वंशधर हैं । अच्छा सुनिए, जब घूस पाकर कान्यकुब्जवाले विद्रोही हो गए तब महानायक वसुमित्रं को विवश होकर नगर छोड़ना पड़ा । उस समय सारी सेना ने चुपचाप सिर झुका कर सेनापति की आज्ञा का पालन किया और कान्यकुब्ज छोड़ प्रतिष्ठान का मार्ग लिया । केवल दो सहस्र सेना ने महानायक की आज्ञा न मानी । एक सामान्य पदातिक उसका नेता हुआ । महाराज ! वे दो सहस्त्र सैनिक विद्रोही हुए। पर किस प्रकार विद्रोही हुए यह भी सुनिए । उन्होंने महानायक की आज्ञा की ओर कुछ ध्यान न दे दुर्ग की रक्षा करने का दृढ़ संकल्प किया। उन्हीं लोगों के कारण कान्यकुब्ज दुर्ग के ऊपर गरुड़ध्वज चमकता रहा। यह नए ढंग का विद्रोह है, महाराज ! आपके राज्य में एक बार और ऐसा विद्रोह हुआ था। कुछ स्मरण है ? उस बार भी एक सामान्य पदातिक ने विद्रोह करके साम्रा- ज्य के सिंहद्वार की रक्षा की थी । महाराज ! तक्षदत्त के पुत्र को छोड़ और ऐसा कौन कर सकता है, और किसकी इतनी छाती है ?" "महाराज ! साम्राज्य की सारी सेना प्रतिष्ठान लौट गई, पर दो सहस्र गौड़ और मागध वीर आपके लिए प्राण देने को कान्यकुब्ज के पत्थर के कारागार में रह गए। दो सहस्र लाखों के साथ कब तक जूझते ? पर जब तक उनके शरीर में प्राण रहा तब तक कान्यकुब्जदुर्ग के ऊपर गरुड़ध्वज खड़ा रहा। आँधी में उठी हुई तरंगों के समान जिस समय थानेश्वर की लाख लाख सेना क्षण क्षण पर दुर्ग पर धावा करती थी उस समय मुट्ठी भर वीरों ने मृत्यु की ओर अपनी छाती कर दी । कान्यकुब्ज के गंगाद्वार पर आघातों से जर्जर फाटक की रक्षा