पृष्ठ:शशांक.djvu/५६

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(३६ ) बालिका थोड़ी देर खड़ी-खड़ी अपने बाबा की दशा देखती रही, उसकी दोनों आँखों में भी जल भर आया। उधर से नन्नी आकर उसे गोद में उठा ले गई। देखते-देखते दोपहर हो गई। रग्घू पसीने से लथपथ एक बड़ा बोरा पीठ पर लादे आ पहुँचा। उसे देख वृद्ध आपे में आए। वे आँख उठा कर रग्घू के मुँह की ओर ताका ही चाहते थे कि उसने टेंट से दस स्वर्ण मुद्राएँ निकाल कर रख दी और कहा “धन- सुख सोनार ने आपको प्रणाम कहा है और कहा है कि "कंगन का पूरा मूल्य मैं इस समय नहीं दे सका, संध्या होते-होते और मुद्राएँ लेकर मैं सेवा में आऊँगा।" नन्नी और रग्घू ने देखा कि उस दिन वृद्ध गढ़पति कुछ आहार न कर सके । संध्या होने के कुछ पहले ही एक क्षीणकाय वृद्ध धारे-धीरे पैर रखता गढ़ के भीतर गया । वह चकित होकर इधर-उधर ताकता जाता था। वह देखता था कि तोरण पर न तो कोई पहरे वाला है, न इधर- उधर परिचारक दिखाई देते हैं । फाटक भी टूटा-फूटा है, उसमें जड़े हुए लोहे निकल कर इधर-उधर पड़े हैं । गढ़ के भीतर पैर रखना कठिन है, प्रांगण में घास-पात का जंगल उगा है। दीवारों के भीतर से बरगद और पीपल के पेड़ निकल कर बड़े-बड़े हो गए हैं। गढ़पति के रहने का भवन भी गिरी-पड़ी दशा में है । भवन की सजावट की वस्तुएँ झाड़पोंछ के बिना मैली हो रही हैं, उनपर धूल जम रही है। दुर्ग के भीतर की अवस्था देखने से जान पड़ता है कि यहाँ अब मनुष्य का वास नहीं है। दूसरे दुर्ग के नीचे एक छोटी कोठरी के सामने एक बहुमूल्य पारसी कालीन पर वृद्ध गढ़पति बैठे हैं । सोनार ने उन्हें देखते ही भूमिपर पड़ कर साष्टांग प्रणाम किया । वृद्ध दुर्गस्वामी ने उसे बैठने को कहा, पर वह बैठा नहीं। उसने एक थैलो में से बहुत सी स्वर्ण- मुद्राएँ निकाल कर वृद्ध के 'सामने रख दी और कहा "कंगन कितने मूल्य का होगा यह अभी मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता । एक सहस्र