पृष्ठ:शशांक.djvu/६७

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( ४७ ) बालक-हाँ ! पर इधर मेरे चचेरे भाई के पुत्र अवंतीवर्मा ने हम लोगों को निकाल दिया था। महासेनगुप्ता कुछ काल तक चुप रहीं, फिर पूछने लगीं. "गढ़ की सेना क्या तुम्हारे पिता के विरुद्ध हो गई थी ?" बालक-नहीं, पिताजी कहते थे कि यदि भीतर-भीतर थानेश्वर के राजा उसकी सहायता न करते तो मेरा चचेरा भाई हम लोगों को कभी नहीं निकाल सकता था। पिता ने सहायता के लिए पाटलिपुत्र दूत भेजा था, किंतु सम्राट ने कुंछ सहायता न की। प्रभाकरवर्द्धन के मुख का रंग कुछ और हो गया, लज्जा से महा- सेनगुप्त ने भी सिर नीचा कर लिया। महादेवी ने फिर पूछा “दुर्ग से हटाए जाने पर तुम लोगों ने क्या किया?" बालक-पिता मुझे और बहिन को लिए सहायता माँगने के लिए सम्राट के पास आ रहे थे, मार्ग में- बालक का गला भर आया, उसकी नीली-नीली आँखों में जल झलकने लगा। यह देख महादेवी ने उसे खींच कर गोद में विठा लिया । बालक सिसक-सिसक कर रोने लगा । इतने में विनयसेन हम लोगों की पूर्व परिचित सहवाइन ( परचून वाली ) को लिए आ पहुँचे। घर में आने के पहले ही से वह बिल-बिला रही थी; कोठरी में पहुँचते ही उसने पूरे सुर में रोना आरंभ किया। जब पीछे से एक प्रतीहार ने चाँटा दिया तब जाकर उसका रोना कुछ थमा। वह कहने लगी “मैंने कोई अपराध नहीं किया है, मुझे बिना अपराध पकड़ लाए हैं ।" जब विनयसेन ने देखा कि उसके शोक का वेग बराबर बढ़ता जाता है तब उन्होंने उसे चुप रहने के लिए कहा । महादेवी ने पूछा “तुम्हारा नाम क्या है ?" स्त्री-मेरा नाम मल्लिका है, मेरी माँ का नाम-