पृष्ठ:शशांक.djvu/७२

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( ५२ ) और वहाँ कीचड़ सा हो गया है। बुढ़िया यह देखते ही अपनी हँसी न थाम सकी, अपने पोपले मुँह के अट्टहास से वह पुरानी छत हिलाने लगी। बूढ़ा चिढ़ कर उसे गालियाँ देने लगा। हँसी कुछ थमने पर नन्नी बोली तेरी देह और माथे में लगा क्या है, देख तो। तूने तो समझा था कि तेरा सिर फूट कर खंड-खंड हो गया है।" रग्घू ने घबरा कर पूछा "क्या लगा है ?" बुढ़िया मोदक और टिकिया। रग्घू -हाँ रे ! यह सब कहाँ से आया ? हे कालूचीर ! मैंने तुम्हारा नाम लेकर अभी ठट्ठा किया था, अपराध क्षमा करना, मैं कल तड़के ही पेड़ के नीचे तुम्हारी चौरी पर बलिदान दूंगा । देख बुड्ढी ! यह सब भूतों की लीला है। दस वर्ष से कभी कोई पकवान और मिठाई लेकर गढ़ में नहीं आया है। आज कौन आकर मिठाई का ढेर लगा गया है ? बुढ़िया सन्नाटे में आकर बोली “उनकी लीला कौन जाने ?" इसी बीच में द्वार पर किसी मनुष्य की परछाई पड़ी और धनसुख सोनार ने आकर पूछा "रग्धू ! तुम उठे ? अरे यह क्या किया ? सब हाड़ियाँ फोड़ डालीं ? जापिलग्राम के मोदियों ने गढ़पति के लिए इतनी मिठाइयाँ भेजी थीं।" रग्घू थोड़ी सी हँसी लिये हुए बोला "तो यह सब भूतों का काम नहीं है। चलो थोड़ा..." इतना कहते-कहते जमीन पर से एक लड्डू उठा कर उसने मुँह में डाला और बोला “अरे नन्नी ! ऐसा बढ़ियाँ लड्डू तो इधर बहुत दिनों से नहीं खाया था, नन्नी थोड़ा तू भी खाकर देख ।" इस प्रकार उसने एक-एक कर के जमीन पर पड़ी , हुई सारी मिठाई पेट में डाल लो। उसके शरीर पर भी इधर-उधर जो चूर लगे थे उन्हें भी ठिकाने लगाया । बुढ़िया उसकी यह लीला देख मुँह पर कपड़ा दिए हँस रही थी। धनसुख चुपचाप द्वार पर खड़ा था।