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शिवशम्भु के चिट्ठे


करके उसके मनको टटोलें? माइ लार्डको ड्यूटीका ध्यान दिलाना सूर्य को दीपक दिखाना है। वह स्वयं श्रीमुखसे कह चुके हैं कि ड्यूटी में बंधा हुआ मैं इस देशमें फिर आया। यह देश मुझे बहुत ही प्यारा है। इससे ड्यूटी और प्यारकी बात श्रीमान् के कथनसे ही तय हो जाती है। उसमें किसी प्रकारकी हुज्जत उठानेकी जरूरत नहीं। तथापि यह प्रश्न आपसे आप जीमें उठाता है कि इस देशकी प्रजासे प्रजाके माइ लार्डका निकट होना और प्रजाके लोगोंकी बात जानना भी उस ड्यूटीकी सीमा तक पहुंचा है या नहीं? यदि पहुंचा है, तो क्या श्रीमान् बता सकते हैं कि अपने छः सालके लम्बे शासन में इस देशकी प्रजाको क्या जाना और उससे क्या सम्बन्ध उत्पन्न किया? जो पहरेदार सिरपर फैटा बांधे, हाथमें संगीनदार बन्दूक लिये, काठ के पुतलोंकी भांति गवर्नमेण्ट-हाउसके द्वारपर दण्डायमान रहते हैं या छायाकी मूर्तिकी भांति ज़रा इधर-उधर हिलते-जुलते दिखाई देते हैं, कभी उनको भूले-भटके आपने पूछा है कि कैसी गुजरती है? किसी काले प्यादे-चपरासी या खानसामा आदिसे कभी आपने पूछा कि कैसे रहते हो? तुम्हारे देशकी क्या चाल-ढाल है? तुम्हारे देश के लोग हमारे देशको कैसा समझते हैं? क्या इन नीचे दरजेके नौकर-चाकरोंको कभी माइ लार्डके श्रीमुखसे निकले हुए अमृतरूपी वचनोंके सुननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ या खाली पेड़ोंपर बैठी चिड़ियोंका शब्द ही उनके कानों तक पहुंचकर रह गया? क्या कभी सैर-तमाशेमें टहलने के समय या किसी एकान्त स्थानमें इस देशके किसी आदमीसे कुछ बातें करने का अवसर मिला? अथवा इस देशके प्रतिष्ठित बेगरज आदमीको अपने घर पर बुलाकर इस देशके लोगोंके सच्चे विचार जाननेकी चेष्टा की? अथवा कभी विदेश या रियासतोंके दौरेमें उन लोगों के सिवा जो झुक-झुककर लम्बी सलामें करने आये हों, किसी सच्चे और बेपरवो आदमी से कुछ पूछने या कहनेका कष्ट किया। सुनते हैं कि कलकत्तेमें श्रीमान्ने कोना-कोना देख डाला। भारत में क्या भीतर और क्या सीमाओंपर कोई जगह देखे बिना नहीं छोड़ी। बहुतोंका ऐसा ही विचार था। पर कलकत्ता-यूनिवर्सिटीके परीक्षोत्तीर्ण छात्रोंकी सभामें चन्सलरका जामा पहनकर माइ लार्डने जो अभिज्ञता प्रगट की, उससे स्पष्ट हो गया कि जिन आंखों