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शिवशम्भु के चिट्ठे


करते हैं। अथवा मन चाहे तो इस देशके साथ बिना कोई अच्छा बर्ताव किये भी यहांके लोगोंको झूठा, मक्कार कहकर अपनी बड़ाई करते हैं।

इन सब विचारोंने इतनी बात तो शिवशम्मुके जीमें भी पक्की कर दी कि अब राजा-प्रजाके मिलकर होली खेलनेका समय गया। जो बाकी था, वह काश्मीर-नरेश महाराज रणवीरसिंहके साथ समाप्त हो गया। इस देश में उस समयके फिर लौटने की जल्द आशा नहीं। इस देशकी प्रजाका अब वह भाग्य नहीं है। साथ ही राजपुरुष का भी ऐसा सौभाग्य नहीं है, जो यहां की प्रजाके अकिंचन प्रेमके प्राप्त करनेकी परवा करे। माइ लार्ड अपने शासन कालका सुन्दरसे सुन्दर सचित्र इतिहास स्वयं लिखवा सकते हैं, वह प्रजाके प्रेमकी क्या परवा करेंगे। तो भी इतना संदेश भंगड़ शिवशम्भु शर्म्मा अपने प्रभु तक पहुंचा देना चाहता है कि आपके द्वारपर होली खेलनेकी आशा करनेवाले एक ब्राह्मणको कुछ नहीं तो कभी-कभी पागल समझकर ही स्मरण कर लेना। वह आपकी गूंगी प्रजाका एक वकील है, जिसके शिक्षित होकर मुंह खोलने तक आप कुछ करना नहीं चाहते।

बमुलाजिमाने सुलतां कै रसानद, ई दुआरा?
कि बशुक्रे बादशाही जे नजर भरां गदारा।

('भारतमित्र', १८ मार्च सन् १९०५)


[७]
बिदाई-सम्भाषण

माइ लार्ड! अन्तको आपके शासन-कालका इस देशमें अन्त हो गया। अब आप इस देशसे अलग होते हैं। इस संसारमें सब बातोंका अन्त हैं। इससे आपके शासन-कालका भी अन्त होता, चाहे आपकी एक बारकी कल्पनाके अनुसार आप यहांके चिरस्थायी वाइसराय भी हो जाते। किन्तु