पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/११८

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज कवित्त छितिपाल न कौन त जिन्न को कुचकुंभन घोर घटा न करें । विधि वेद बखानत कौन जिन्हें सुनि तानत भम रट न करें । ॥ सुर सेवक को फुर है जिनके उर काम कृसान मटा न करै । अस को जुत अच्छर है जिनको तिय मारि कटाछ कंटन न करें ॥ ५ ॥ जाहि कहें सब वेद प्रकारि ऋपीसुर होहि पूरे मद ७रन । जा करनी मन माहेिं वि चारि सदासिस्र आए चवात धतूरन ॥ दत है छितिपाल तिन्हें सब काल सर्वे दिसि ते दुरि , दून। पाक में जल में महि में ससि में रवि में सबमें परिपूरन ॥ ६ ॥ पके केस मुख रद्द घिन सिर्चरे अंग । गये अनैग न दृष्ण तजी तरंग ॥ ७ ॥ भूमि सन फल भोजन घलकल वीर । को धनपति के आगे रहै -अधीर . ८ ॥ २००. छेम कवि-(१) ऊँचो कर करेंताहि ऊँचो कर तार करै ऊनी मून आने दूनी: होत हरकति है । याँ ज्यों धन धरे सैं याँ त्य विधि खंगे खर्च लाख भाँति धर्ग कोटि भाँति सरकति है॥ दौलति दुनी में थुिर काबू के न रही बेम पाछे नेकनामी बदनामी ख़रकति है । रंज़ा होइ रोइ. होइ साह उमराइ होइ जैसी होति नैति तैसी होति बरकति है।१। रंग है आज़ंद को सहरी निवै करि जानौ िखात न भंग है। भंग है द्वारिद को तेदि के ब्रेन में जिन काम को कीन्हाँ आनंग है । नंग है अंग विभूति साँ हेतु औ ओं जोग सों नेतु कैंपई सिंगे है । संग है औविकलां के सदा औ जटा में विराजत गंगतरंग है, i। १ त।२ कमी।३ नियत।४ जटाजूट।५ मटमैले रंग का।