पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/११९

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शिवसिंहसरोज

१ १० शिबूसिंहसरो २०१. खेमकरण ब्राह्मण (२) ज्ञानी उपासक ध्यानी बड़े नित ने निर्धाहि मुदान दये हैं । जानै सुनै गुन ज्ञानें गुने गुनगाह क साधक सिद्ध भये हैं । जोग विचार विराग हैं छेम लु केतिक तीरथ पंथ गये हैं । संत पुरातन हैं तो भले पर जौलौं नये नहिं तौलौं नये हैं ॥ १ ।। अंगू न कंजू से सोहत हैं अरु कंचन कुंभ थपे से आये हैं । गरे खरे गदकारे महा बटपारे लंसे अंरु मैन गये हैं ! ऊँचे उजागर नागर हैं अरु पीय के चित्त के मित्त भये हैं । हैं तो नये छुच ये सजनी पर जैौतौं नये नदेिं तौल नये हैं ॥ २३। २०२, छबीले कवि प्रद मुकुट माथे धरे दौर चंदन करे माल-मुक्ता गेरे कृष्ण हरे । पीतष्ट कटि कसे कान कुंडल लसे निर्षि दिना उरबसे प्रान मेरे ॥ मुरलिका मोइनी कर कमल सोनी नै. कनक दोइन खरिक नेरे। लाल लोचन बने ललित रस में सने मैन से अनशने शाल टेरे ॥ किंकिनी काबनी देत सोभा घनी देखि कौस्तुभ मनी सुर बकरे । सुछबीलो रंगीलो रसीलो आली सो लशन की मगन में बसेरे १।. २०३, बैल कवि जमुना के तीर कौन पावत नहन चीर चुप ही चोराइ लेइ रूवनि धरत हो । कहै कवि बैल केते जानत हो दबंद सैद कहा कहीं नैद को निद्रत हौ ॥ इस न होर्ति एती बात की सहन वारी चिंना फल पाये तुम कैसे गुदरत हौ । पाइ खोरि -भीरी चव छोंरि लेईि वीरीअब इहाँ कारीपीरी आंखें कौन वे करत हौ।॥ १। २०४, छीत कवि (१ ) तारे भये कारे तेरे नैना भये रतनारे मोती भये सीरे त् न सीरी १ साल ।.२ दंडी.।