पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१२२

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शिवसिंहसरोज

शिंदसिंहसरोज १०९ । साधु एक सो धरि पिय परदेस । विन कपाट घर सूनो ने आदेस ॥३ ॥ गरजत सिंह सत्ति इंहि बन में आयं। रेखाकूल सुग्यो है खवन बनाय ॥ ४ । ॥ स्वस्य अचल पुरइनि पै बक ठहरात । जल पन्नाभाजन में दर दरसात ॥ ५॥ विद्या विविध विराजत सील न हीन ।। प तुष सभा वढ़तछवि ख विन कीन ।। ६। विरति जहाँ द्वादस मै पुनि सुनि अंत । रीति यह बरनै की कहै अनंत ॥ ७ ॥ कावित्त । हालि हालि हुलसि फुलसि सि सि देख बचने यतीसी मीसी दीसी दिनराति है । जामा पायजामा सब सामा की चलावै कौन जगत जनोनन की. सीखी सब घात है ॥ लोक की न लंाज परलोक को करें न काज ठाकुर कहाइ कहां चोरी उतं- पात है । गनिका ज्यों डोली पर बैठत खटोली पर चालु पर चोली पर वोली पर मात है ॥ ८ " २१०. जवाहिर भाट (१) बिलग्रामी गोपी अभ्हाइ चलीं टह को रहे गोष सचे तकि श्रीनंदनदह । मारग में चलि राधे को गिरी वेसरि मेरी कियों छलछंदहि ॥ ह्वद्धन को गई लौटि जवाहिर जाने नहीं कंकु यां फरफंदईि । सीस नवाइ के हेरें जले तले हे लंगी रंसि श्रीव्रजचंदहि ॥ १ ॥ २११ जवाहिर भाट (२) श्रीनगर बुंदेलखण्डी चंचल तुरंग मन रथ अभिलाष चहि.चलहु सधीर ग़ज सजि १ विश्राम ):२सातपर।