पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१०६
शिवसिंहसरोज

१०६ शिवसिंहसरोज कटाच्छन सर्षों तीखी चितवानि संग प्यारे लगें झाँ में। रूप गुन सुन्दर औीं चातुर अनेक भाँति घितु कोखि सीरी कध लागे मन बाँझ में ॥ ३ ॥ २१६जनार्दन कवि लेते छन्द जानत हो लेते सब जानत हाँ नये नये छन्द-बन्द कहाँ लाँ बनाइहो। सुकवि जनारदन वादिर ना कहाँगी त जोरावरी दौरि कहा घर ही में आइहौ ॥ हारि मानि लेहौ तौ बनेगी बात मोहन चतुरन आगे चतुराई का चलाइहौ । छल सों झली है वैसे मोर्चा को छलन चाहौं छलन छबीले कॅाँह लुत्रन न पाइहौ ॥ १ ॥ २१७जैनुद्दीन अहमद कत्रि ऐसी निति औौसर के बीच में जु आनै कोई तासों को दुराव दीटि ऐसो को कटोर है । हाथऊ Jरेंगे अंक लऊ भरेंगे हमें भवे सो करेंगे तुम्हें यामें का मरोर है ॥ नदीन अहमद पीढि है तिहारी तो मैं राखो बहि उर जो चलै न करू जोर है । पीठि है तिहारी वे हमारी है हमारे जान काहे ते कि रूठे में हमारी होत आर है ॥ १ ॥ २१८, जयदेव (१ )कपिलानिवासी कन बुधि दई निरदई ऐसे दई उन्हें फाजिलथ ती सर्दी जाइ जंग जु रन में केरि के सनमुख जयदेव करी कक्षा की तैसी पाई पिय खोइ गये खन में ५ साँपन संकाती पग डाढ़े पुष ताती वै तो पीटि पीटि छाती पछिताती सो वे मन में । रखो नादि गोती मिति बैरिख़ आती करि कन्दर कहती ऐसी रोती जाती बन में 1१॥ २१६: जयदेव कवि (२ ) विद्या विन ब्रिज के बगीचा विन चामन को पानी बिन सा १ युस्से में २ हाथी।