पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१२६

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज १०७ I " - वन सुहावन न जानी है । राजा विन राजकाज राजनीति सोचे विन पुन्य की वसीठी कहने से धाँ वखानी है ॥ कहे जयदेबू विन हित को हिनू है जैसे साधु विन संगति कलंक की निसानी है । पानी घिन सर जैसे दान विन कर जैसे सील विन नर जैसे मोती विन पानी है ॥ १ ॥ २२०जैतराम कवि रहे राम रैना न श्रीकृष्ण बौना सचे जन्म ले ले कह ध सिराने । रहे पंडया कौरखा जादा ना कहाँ धौं गये ते नहीं जात जाने ॥ कहे जैतरामै अनेके गौ को लखौ रे सने ये जिमी काल साने । धरा के किनारे यहै जो सनो रे फरे से झरे औौ वरे ते बु ताने ॥ १ ॥ २२१, जानकीप्रसाद पंवार ( १ ) ( नीतिविलास ) वन्द अनन्कन्द कीरति आमन्द चन्द द्वरन कुफेद दुन्द घायक कुमति के । सिद्धिशुद्धिदायक विनायक सकल लोक सोहैं सघ लायक श्र नायक डुमति के ॥ कोमल अमल आति अरुन सरोज ओज लज्जित मनोज लवि दानी सुभ गति के । बिघनहरन मुदमंगलकरन वारे आसरन सरन चरन गनपति के ॥ २२२ जानकीप्रसाद (२ ) कवि दुसह दराज सीत जोर के सम।ज करै अंग को कसाला ताकी विपति विदारिये । साहसी समर दानी दयाध-वीर चारो नाम प्रतिपाल जानि पाँचों चित्त धारिये ॥ लायक लवनि है न जा- नकीमसांद दूजो विद्या के निधन जाकी जुर्रुति चिंचारिये। राजा सिरताज सिंह राजमौज माँगत है तीनौ तुर्क आदि एक वरन ढंभरिये ॥ १ ॥ ९ १ कवि तीन चरणों के प्रथम अक्षर बतलाकर दुशाला माँगता है।