पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१३७

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शिवसिंहसरोज

११८ विसिंहसरोजे

दिन औधि के कैसे गिौं सजनी अँगुरील के पोरन छाले परे । कवि ठाकुर का बिया कहिये हमें प्रीति किये के कसाले परे । जिन लाल की चांह की इतनी तिहैंदेखन को अंबू लाले परे 1१ ॥ एक ही स चिंत चाहिये और ल बी व देगा को परे नहीं टाँको। मानिक सो चित बंधु के तू अब फेरि का परखानो ताको ॥ ठाकुर काम नहीं सबको ' इक लाखने में‘ परैबीन ' हैं जाको। प्रीति कहा करिये में लगे करि के इक और निबाहनो वाको ॥ २ ॥ वह कं सो कोमल अंग गुलाल को सोऊ सबै तुम जानती हैं ! बलि नेकु रुई धरे कुम्ढिंलात इतौऊ नहीं पहचानती हl i कवि ठाकुर या कर जोरिकहै इतृने पै. नहीं मानती हौ । डग बान औ भौहैिं कमात कही अब कार्ल लौं कौन मैं तानती हो।।३॥ सजि दुलैन बिखूबटासी अंटान चढ़ती घटां जो नती हैं । मुचती हैं- सुने मुनि मोरन की रसमाते ज़ंजोग सँजोशूनी हैं । कवि ठाकुर वे पिय दूरि बसें ग्रैजुबान सों बाँ तन धोचती हैं । घान वैधनिपावस की रतियाँपति की बति ाँ लनि सो वती हैंi४ से सामिल में पीर में सरीर में न भेद खि मिति कपाट जो उहैि तो उघरि जाई । ऐसो ठान ठावें तो बिना हूं जो मंत्र हुियें साँगे को जहर जो उतारें तो उतरि जाइ ॥ ठाकुर कहत कलू कठिन न जानौ. अब हिंमति किये ते कह कहां ना सुधरि जाइ चारि जंने चाहूि दिसा ते चां ने गहि मे को हला के डरें तो उखरिजाई ॥ बैंर प्रीति करने की मन में न सं रखेंराज़ा रंक देखि के न छाती धकधकरी। आपंनी उमैग की निगाह की है चाहे जिन्हें एक सो दिखात तिन्हें. बाघ और बकरी ॥ ठाकुर कहते हैं बिचारि के विचार देख्ो यहै मरह्माननकी टेके वांत १ चतुर २ एक रंग । मैं घब 1