पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४४

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरो १२५ २६२. तचवेता कधि छप्पे प्रथम द्वितिय दोउ चरन तृतिय चातुर्थ दोउ उर । पंचम नाभि रॉभीर पप्ठहै हृदय मु गनपुर ॥ सप्तम अग्ष दोऊ भुजा नव ऐंठ घिर। दसम बदन मुखसदन भाल एकादस रनै ॥ बाद व सिर सोभित सदा भगतरूपी सुमिरि मन । तत्ववेत्ता तिहूँ लोक में कीरतिरूपी कृष्ण-तन ॥ १ ॥ २६३. तेगपाणि कवि मेरी पीछे से बेनी मरि नई उर हार खटि लियो गरका । पुनि हों ।स के मुख चाहि रही मुंदरी मनि तोरि तनी तरका ॥ भनि तेगपानि मदुकी दइ डरि नई भरि अंक अली दरका । लु उराइनो देति ज सोमति पास लड़ाइते लोगन के लरका ॥ १ ॥ २६७. तोख कवि ( सुधानिधिग्रन्थे ) भूपन-भूषित दूनहीन प्रवीन महारस में छवि छाई । पूरी अनेक पदारथ ते जिहि मैं परमारथ स्वारथ पाई ॥ औ उकतें झुकतें उलही कधि तोख अनोख भरी चतुराई । होक्ति सर्वे सुख की जनिताँ बनि आवत जो बनिता कविताई ॥ १ ॥ सुपन अनन्त पुविपिन लसत पौन सौरभ वहन्त भौंर रसमन्त है। सुतरु फलन्त कूक कोकित कलन्त तकें ध्यान नि-सन्त जर्सी केति को आगन्त है ॥ सदै रसचत औ ख़ियोगिन को गन्त ज, रति ही को तन्त तोख सुकवि अनन्त है । वेघे रतिफ़न्त पाइ तरुनी इंकन्त अब जाडु कित कप्त ऋतु-पति वसन्त है '२ ॥ १ उक्ति । २ युक्ति। ३ उत्पन्न करनेवाली ।