पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१४९

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शिवसिंहसरोज

. मैं ३० शिव सिंहसरोज चले 8 आई नई दुलही लखिचे को जनै कोड चाप बढ़ा ही सजी सिर सारी जवे तघ नाइन थापने हाथ मोहा भीतर भौन से बाहर लॉ द्विजदेव जुन्हाई कि धार सी धा साँ सम ससि की सी कला उदयाचल ते मनों घेरत आत्र। लहि जीवनभूरि को लाहु नली वे भली जुग चारि तो जीधे दिनदेख त्य हरपाय दिये घर बैनसुधाम पीवो कछ चुट खोति चिते हरि मोरन चौ-िससीदुति लीवो हम त। ब्रज को बसियोई तजो अब चाउ चवाइन कीवो कर ( फुट कर ). आावत चली ही यह विपमें बयiरे देख दवे दवे पॉयन रजि दे । लिया कसाइनि को दे री ससुझाय म धुालिनि कुचलिनि तरजि दे ॥ श्राद्ध ब्रजरानी के विये दिवस ताते हरे हरे कीर बकवादिन बरजि दे। पी-पी के ए की खोजें ज्यों न जी हैं । ये पपीहन के जूहन त्यों बावरी दे ॥ ५ ॥ अब मति दे री कान कान्हू की बंसीठिन पे झ प्रमपतियान हू क फरि दे । उर रही री जो अनेक ते तन नाते की गिरह दि नैनन निर्धारि’ दे ॥ मरन चह बेल छीली कोऊ हाथन उचाय ब्रजवीथिन में टरि दे री कह को जरि खेल री भई तौ मेरी देह री उठाप बाकी पै गेर दे ॥ ६ ॥ २७३द्विज कवि, पण्डित मनालाल बनारसी मदमाती रसाल की डारन मैं च हेि आनद सर्ण या विराज कुल जान की कानि करें न कलू मन हाथ परायेदि पारती कोउ कैसी करें द्विज तू ही कहै नदि नेकु दया उर धात अरी कैलिया कि करजन की किरचें किरणें किये डारती हैं । १ चाँदनी । २ खोदे।