पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५१

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शिवसिंहसरोज

१ ३२ शिवसिंहसरोज ३७८ दीनानाथ कवि जानत हों जोतिस पुराम और बैदक को जोर जोरि अच्छर कृवित्तनको उच्चगें। जानौं सभा राजा को रिझाइ जानौं सत्र बाँषि खेत माँझ समुन सों हाँ ल11 राग धरि गाऊँ औ कुदा मरे बाग थरि कूप ताल बावरी नेघारन में हों तर्गे । दी- नबन्धु दीनानाथ एते गुन लिये फ़िरों का न यारी देत तांको मैं का करों ॥ १ ॥ २७६. राजा दलसिंह कवि दोऊ तिरभंगी दोऊ पुली अधर धरे दोऊ तन एक से निरं जन निर्ग जनी । दोऊ बनमाली दोऊ मरो के मुकुट दीन्हे दोऊ इंग गाँजे मानौ खंजन यौ खंजनी ॥ दोऊ मेम पढे दोऊ मन ही के सचे गहें दोऊ काम रति मदर्भजन, औ भेजनी । भरी टासिंह इंदावन के विनोदी - दोऊ दुन के दोऊ मनरंजन औ रजनी t १ से मेरी त्न मन व्याप रंग ही सों रेंग रहो और रंग देखे होत नैन मन साल है : नील पट नील मनि न सुखद लागै नील जल जमुना के अति सुखपाल है । भने दल सिंह नृष नील कन सहज ही तमें वृद्घि पिय ला विपिनै तमाल है । नील तरु नील फूल नील गिरि नीलकंठ नील घन देखे हुग मानत निहाल है ॥ २ ॥ २८e . दास, भिखारीदास कायस्थ, प्रतापगढ़वाले आनन है अरविंद न फूले आलीगलें झूले कहा मड़रात की है। कीर कृहा तोईि बैइ भई भ्रम क्धूि के ओठन को ललचात ही ॥ दासजू ख्याली न बेनी बनी यह पापी कलाँपी कहर इतरात ही । १ रण के मैदान में २ निर्द से ३ बन । ४ सैं । ५ तोंतर . ६ पागलपन । ७ फ़ेडरू । ८ मोर है।