पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५४

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शिवासिंहसरोज १३५ २८१ . देवीदास कवि ख़ुद ल खएडी -

दवे को करन दुआ ख आमदाहरन असरन को सरन मन मानतें रेस है । उदित उदार साहिल को सिंगार यो जंग जितने वार लडयो दावन सों देस है। ॥ गुनन को भारी जदुवंस में उजा- रो और रूठत अकारो यह मरो है । गाजी गंज महंस वफल गरीवन निवाजन को देवीदास ऐसो नाजु भैया रतनेस है ॥ १ ॥ वासी बर उर के उदासी भये मोरगते पाली गति अनंत ही पीतम पियार में । परनाम लीजे मो सुहागपुर देवीदास काबिल के दिली ही गुनागरे विचार में 1 विर कीन्हे भाग नागर हमारे श्रा कातभीर तिलक है ल।ल त लिलार में। नसनी लो लाल औध में मिले हौं मोहैिं पना सात उर उंग विहार में ॥ २ ॥ छोटे छोटे पेड़न को सूरन कियारी क पतरे से पौधा तिन्हें पानी प्रतिपारिवो नीचे गिरि गये तिन्हें कैद है। टेक ऊँचे करें ऊँचे बढ़ि गये ते जरूर काटि डारिवो ॥ फूले फूले फूल सब वीनि एक टौरी क घने घने रूख एक दौर ते उखा रियो । राजन को मालिन को नित प्रति देवीदास चरि घरी रति रहे इन घिचारियो ॥ ३ ॥ नट के न धाम ना नपुंसक के काम नाहीं ऋनी के आराम वाम विरसा ना सहेलरी I जुआ के न सोच मांस हारी के न दया होत कामी के न नातो गोत छाया न सहेल री ॥ देवीदास वसुधा में वनिक न सुनो साधु कुकर के धीरज न माया है सहेलरी । चोर के न यार बटपार के न भीति होत लाबर न मत होत सौति ना सहेलरी ॥ ४ ॥ एरे गुनी गुन पाइ चातुरी निपुन पा।इ कीजिये न मैलो मन काहू जो कं करी । वीरन घिराने द्वार गये को यही सुभाष मान अपमान काहू रे की कि जू करी ॥ कूर और कवि चले जात हैं सभा के मध्य तोसों तौ हटकि देवी n )