पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१५६

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शिसिंहसरो १३७ .५ २८४. देवीदत रुचि बड़े बड़े रानी पुरुपारथी अपार फिरों के को द्वार बार कवि पंडित सिपाही हैं । व जे मतिमंद संवे जनत बढूिंद तौन घखत बद डू द उतसाही हैं ॥ देवीदत होत कहा की कारतूर्ति दई दई की विभूति सो न मानत थरही हैं । सेंतिमेक्ति बापनी बनाई गुमराई गूद मद के उदोत होत हरि के गुनाही हैं ॥ १ ॥ दाया दिल राखें सघ ही सर्दी मृदु भाखें नित काम क्रोध लोभ मोह मति सों देवमैं जू । का मैं न तेजें ब्रह्मा सवही में देखें आए ही को लड लेख करि नेम तन तवें जू ॥ देवीदत जनें हरि ही को एक मीत और जगत की रीति में न प्रीति सरस।वें जू। दुखित है आए दुख औौर को मिटमैं ऐसो सांत पद पई तव भगत कहने लू ॥ २ ॥ २८५. देवी कवि मोहन से हम से हित है घर साधु ननंद बँधी फरजी री । वैठि कहे गुरुलोग दुनार पुछी तव से कुल की सारी री ॥ डाटने लगी परोसिनि डिनि देवी कहा करिये 8 सखी री। थों काईि के पल दो पल मा तमा गत मा ली री ॥ १ ॥ की नातेिं देरी तुम एरी युद्ध मेरी बात जामिनी अँधेरी मग हैरी लाल तेरी री । चलिये री हरेरी रसभा कौ धरेरी जाइ कुंजन मग लेरी छर तेरी द देरी री ॥ देवी कहत जुरी जेरी रंधी सव संग के री करते मजे री तुम देरी इत एरी री है है उतेरी रैनि लिपि है री न मेरी नैन करि है चैन तू कुवैन गेह मेरी री\ २ ॥ २८६. देवी दास भाट काव अंत दाले ( १ ) गोष को गूजरु गरेहु गोवरन को गोहन को गड़ा गोसा अंजु गुज़रीन को ।.छपकी बॉंट्री कराये जहाँ छाई रहें व्याली याल * खंड झावर झरीन को ॥ माचिन को मुलुक मिलिक सूते मच्छन को भूतल को भौ. तहाँ मैको मकरीने को ।