पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१६०

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शिवसिंहसरोज १४१ चाँघा चारु चंफ्ला अडोल री ॥ जागि रही चहूं ओोर चन्द की मन्द कला तातें चल खंज़न है नाचत अमोल री । रही ना निचोधि जय ते वे सुने बोल सोभा बरसा मत कों ी प्रति लैोलरी ॥ १ ॥ चपला ग्रडोल मै अमोल पिक बोलै वो राजति जंगन में कंजन की लाली री । सर सी भीर भीर हंसन की जागु तीर तहाँ उद दे रही विचित्र नखताली री ॥ राकापात संग सजे दीनघाल तामें उमैभानु लोल नवं चारु चाली री । एक ही तमाल पर मिले एक काल आई मजब तमास लख्. के ज बीच जाती री ॥ २ ॥ ( श्रम्पतिकल्पद्रुम ) दोहा—र ब्रिति निधि संति साल में, गाघ मास सित पछ । तिथि बसंत जुत पंचम, रवि बासर भ स्वच्छ ॥ १ ॥ सोभित तेहि अत्र सर विपे, बसि कासी मुखधाम । विरयो दीनदयालगिरि, कलपद्म अभिराम ॥ २ ॥ २६८देवा कवि विवि गयन्द जंहें लगे लोह तागो तिहि ठहर । कमठ पीठ दे चकह करंन कीन्हे ढं बाहर ॥ सीत हरन के काज राज है बुद्धन कीन्ही । मैं मैं जुरि लुरि लगें पीठि क। हू नदि दीन्हीं ! झ सार अंतर परो रन जीते दोनों सदी । देवा कहत विचार के न भारत न रामायन कही ॥ १ ॥ नोट -यह छूट है गरखे का । २६ के देवकीनंदन शुल मकरंदपुरवाले प्रेम हंस लीने छह चित्तऊ ह१ष पायो जाग्यो पंचबान जितें १ चंचल ।२ कपड़े की सुध ।'३ चंचल 4 के स्थिर, ५ अमावसं ।