पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१६१

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१४२
शिवसिंहसरोज

१४२ शिवसिंहसरोज लगि छवि छाई है । देवकीौंदन कहै सारंग गुनीन गाधो पाहरू युकायो मुनि चटक लगाई है ॥ ढग मुख अमर विलोकिहो तो गझो लाल ऐसी एक बाल देखि कुंजन में आई है । दुपहर कैसो कंज इंदु अधराति कैसो प्रात जैसो रबिबिंब तैसी अरुनाई है ॥ १ ॥ वे छगुनी के ये ससकें कर बार सी पतरी जो मैं चढ़ाघों । दंतन दावत जीभ इसे उतं लाल की विरुख ई बचावों ॥ देवकीनंदन मोको महा दुख का सो कहाँ इत काहि लखाों । छोंड़िहाँ गाँव बबा कि सौ कान्हू चुरी पहिरापन में नई आवों२॥ सायु मेरी राधिका की सौति तो न जाने कबू पाँचे ज्ञानइन्द्रिन सर्ण ज्ञान ना बताई है । देवकीौंदन कहै सुनते ो बिहारीलाल पथिक तिहरे भाग ही ते में आई है ॥ तीन मेरी दूती से प्रवीन परमेस्वर ने रची विधि ए करि हमें कठिनाई है । एक सुरदाप्त दासी एक जगन्नाथदासी एक झुग्दासदासी ताकी एक आई है ।।३॥ नखत से मोती नथ वैदि या जरा जरी तरल तरौनन की आभा आंख फूटी है । देवकीौंदन करे तैसी चारु र्च सकली पेंचलरी मंत्र मोइनी की गति ली है ॥ चुनरी कुसुंभी रंग ऊनरी परत तन क लित किनारी सशें ललित रस लूटी है । बाल तेरी छाती में हमेल छवि हूटी मानों लाल दरियाई बीच बेलदार बूटी है ॥ ४ ॥ कुंज न ते आवत नवेली अलवेली चली सोभा अंगअंगन की जागत उदै भई । देवकीनंदन सुख-छबि की निकाई , लगे चारो ओर चॉ दनी प्रकास कर है गई ॥ स्याम मुख भाली तुम को ही कित हो। आने बैन मग थाकी फिरि बाही ठौर ठे गई । लालन की ओर इंग जोरि कासि कोरि तन तोरि झकझोर चित चोरि करि गई ॥ ५ ॥ कैों स्याम बरनी सिंगार रस रूप धारे ललित क- पोल पर जागो पुख मूल है । कैथों काम खेह है के ऊगो छवि ने