पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१६५

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शिवसिंहसरोज

- १४६ शिवासिंहसरोज छटा सीबिचरति हैं। हीरन -की किरलें लगा रखाँ जुगुन्द सी कोकिला पपीहा मि. बानी ने रति हाँ क्रीच ऑसुखान की चाऊँ कबि देव क़है पीतम बिट्रेस को सिवारियो हरक्ति हैं। इन्द्र कैसो धनु साजि बेसरि कसति नाजु रेहु रे बसन्त तोहैिं। पqावस करति ही ॥ ५ ॥ बसि वर्ष हजार पयोनिघि में वह भाँतिन सीत की भीति सही । कवि देवब्जू त्यों चित चाह घनी सतसंगति!युक्त हू की लही ॥ इन भाँतिन कीनो सबै तष जाल बुरीति कंडेकॉन वाकी रहीई। अजहूँ लौं इते पर सीप संघे उन कानन की समता नही ।। गोरेमुख गोल रे हँसंत कोल लोने लोन निकोल लोमें लीन्हें लोकंलज परलोभाःलविंकेलाल मसिभाकबि देव कहै गोभा से उठत रूप ‘सोभा की संभज पर ॥ बादले की सारी जगमग जरंतारीदार कंचनकिनारी होनी झालार के साज पर। "मोतीशुझे छोरन चंपक चंहुः ओरन क्याँतोंरनतरैयनकी ताभ विजेरीजपर ॥७-1॰घुट खुलंत ‘अर्थ तंट है है देव बिंद्धत मैनेजजग बुद्ध ऋष्टि पगो ।को कहै अलोकबात सोकंहै अ लोक तिय’ लोक निर्वी लोक की तुनाई ग्लूटि पेरेंगी। 'द्रव मुख नतरु तयन ने मंडल औ मटक चटाक'द्धि पैरंगो ।” तो चिंत सकोचि सोचि मोह मद मुंचा है औोंर सो छपाकर छता सो टि रंगोlir ८ ॥ चोंट लगी 'इंन न की दिन इन वीरिन सा करती हो। देखतमें मैन मोहैिं लिंयो लिषि औट झरोखून के कती है। देव केहै तुम ‘हौ कंटी तिरछी “ोंखियाँ कैरि के सकती हो। जानि परै न कंछ मैन की ‘मितिहैो कंबंढूं कि मैं रेंगतीं.rt ॥ वेस विदेस के देखे नरेन शै िके कोऊ-छ इति-करैगो ।