पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१७३

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१५४
शिवसिंहसरोज

१५४ शिवसिंहसरो तन तन सुमति न होत मलयगिरि होत न बन बेन। फनि फनि मनि नहिं होत क् जल होत न घन घन ॥ रन रन दूर न होत हैंजन जन होत न भक्त हरि । नरहरि निरवि कवित्त कहि सब नर होतें न एकतरि ॥ २ ॥ ३१६. निहालब्राह्मण निगोहाँवाले वोष करि पाठक प्रदोष ते करत सौर चातक चकोर मोर चोर अहि चोटी के 1 सिलीमिली झींगुर झरोखे के नगीच नीच बीच बीच सार सतानें जोर जोटी के ॥कवि निहाल ताप तड़ि ता तड़प ताप अंग अंग अखिल अर्नग अंग गोटी के । रैनि रही छोटी नींद ऑखिन अगोटी ता लागे करै खोटी ये पखेरू लाल चोटी के ॥ १ ॥ ३२०, नोने कवि हरिलाल कवि बाँदावा के पुत्र तारागन तापै ताणे औौना कलहंसन के पुरवा ठ ताएं तif कदली जुगधि है । केहरि पु तादें तांf कुन्दन को कुंड़ तष लसत त्रिवेनी मनौ छवि ही की छबि है ॥ नोने कवि कहै नेही नागर छबीले स्याम दरस निहारे देत चारी फलसवि है । कनकलता तापै श्रीफल सुतापे कम्यु कंज उग तापे चंद तापै लसो रवि है ॥ १ ॥ पाँयन ते पींडरी झुंझावत गो जंघन में जंघन नितम्व कटि खीन में थिरानो है । त्रिवली तरंगिनी को तरि फेरि चढ़त भो कुच गिरिसंधि में न तनक डेरानो है ॥ नोने कवि कहै ग्रीव तरल तनन के चिबुक कपोल केसपास में घिरीनो है . करि ना लखा री जरतारी की फिनारिन ते प्यारी स्याम सारी के सऐंठे में हेरॉनो है ॥ २ ॥ छूटी रतिरंग में अनंग की उमंगभरी आानि मुखचंद पै आनन्दित पढ़े दिये । कलू सटकारी कछअधिक गरूवारी १ घिरगया ।२ शिकनखुन्नट । ३ खोगया । n N जब