पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/१८८

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शिवसिंह सरोज १६९ ३५८, नरेश कवि झरि से कौने लिए घन बाग थे कौने गाँवन की हरियाई । कोयत काहे कराहति है वन कौने चर्चा दिवि धूरिउड़ई ॥ कैसी नरेस बयार बहै यह कौन धर्मों लौने सो माहुर नई । हाय न कोऊ तलास करें ये पलासन ने दारि लगाई ॥ १ ॥ ३५६, नबन कवि भेटत ही सपने में भधु चव चंचल चारु अरे के पूरे रहे । । त् यों सि के घघरान वे अधरान धरे ते धरे के धरे रहे ॥ चौंकी नवीन चकी उझकी मुख स्वेद के चंद ढरे के डेरे रहे । हाय खुली पल पल में दिल के अभिलाष भरे के भरे रहे 1१॥ २६०: क्षत्रिय नवलदाल कवि, गूढ़वले ( शानसरोवर ) दोहा- -भक्त एक ते एक जग) जनि कोड कट गुमान । कोड प्रगट कोड गुप्त है, जानि रहे भगवान ॥ १ ॥ कोउ शु कोड बृहस्पत्ति, कोड मंगल की भाँति । कोड कचपचियह उदय घन, सुमन अनेक्षन जाति॥ २ ॥ ३६१. नरिंद कवि, महाराजा नरिंद सिंहपटियालानरेशा चंदन की चरचा न रही न रही अरी आई जो भाइल दई ही । मोतिन की तरकी लर है दरकी गिया पहिरी उ नई ही ॥ छींकत हौं पई जु हती यु तो हैं न सुनी मुनि हो ही लई ही। आयो न आायो बलाय ल्यॉं तेरी तु काहे लरी लरिवे को गई ही 1१ ३६२. नरोत्तम कवि (३ ) आये मनमोहन घिताइ नि और ही सों का सौतिनन पग १ खौर