पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२०४

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शवासिंहँसरोजे १८५ ३६२ प्रेम कवि यह मानदस चित चातुरी चाह हरेहरे नाईि कहे हँस के। झिझकारनि पाननिवारनि व पुसफ़ानि रही दिय में बस ॥ मुखबन हेत दुरावन की मैं प्रेम दिये लगिचो मसकें ! रति के रस के कुच के मसके जे लई सिसके ते आज कस 1१॥ ३६३ पुरान कवि बाँसुरी के बीच एक भौंर डारि ल्याई सखी ढाँषि पपल्लव साँ महा बुद्धि भारी साँ । भनत पुरान यामें आए ही ते युनि होत कान दें के कहो मुनो राधा मुकुमारी साँ ॥ रीति रीति चारी ताहि आप ही मगन भई नभ तन चिनै सुख mो स्याम सारी सों। चर में गाँठि दै विहाँति उवि चली अली प्यारी कही आज याँ ही रहो न हमारी सर्षा ॥ १ ॥ ३६४ . पूरबीने कवि दोहा कहे परोसिनि साँ तिया, निरखि सखी सुखदैनि । चारि दिन की चाँदनी, फिरि चैंधियारी रौनि 1१॥ गई न यदि संकेत को, विलखे ब्य।कु बाल । औसर चूकी डोमनी, गावें तालचेताल ॥ २ ॥ लयो डंक मुख जाइये, जहाँ कुटिल अलि जान। ज्ाँ मधि काजरकोठरी, लागे रेख निदान ॥ ३ ॥ फेरि मिलोन देहि दुखचहे। नंदकुमार । जैसे हाँड़ी काठ की, चढ़े न ढूंजी बार ॥ ४ ॥ सुदरत। कद तन, वतिथाँ. सुख सरसात । होनहार विरवान के होत चीकने पात ॥ ५ ॥ ३६५. परशुराम कृवि जर्सी के कुसुम ताकी छवि के चतुर चोर मानिक के मत १ धीरे-धीरे ।२ हाथ को हटाना। ३ अकथनीय दुपहरी का ।