पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२२४

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२० ५ शिवसिंहसरोज के यु पीढि मैं चढ़ायो पीठि आपनी दै कवि हरिनाथ को कछोड़ा माम साहूँ। चकवे दिली के जे अथक अकवर सो नरहरि पालकी को अपने कंधा धरे ॥ वेनी कवि देनी औ न देन की न मको सोच नावें नैन नीचे लवि वीरन को कादरें । राजन को दीग्रो कविराजन को काज अब राजन को काज कविराजन को आाद* ॥ ३ ॥ सुरसरि सैदुर जटाकलाप वेनी बर उपमा अनूप ऐसी सुखमा लहित है । बारन चर चीर भून भुजंग अंग अंजन अनल ढग संग समुचित है ॥ वेनी कवि जाको भेद वेद । न जानत है हावभाव निरखेद अदभुत हित है । नर बहै नारी बहै नर है न नारी बह जाने को अनारी अर्धनारीस्वर चित है ॥ ४ ॥ ४३६. बेवप्रबीन (३ ) बेनी साख बाजपेयी लखनऊवासी सूर सदा रति में ससि सो मुख मंगल रूप धरे बुघ नायक । जीष तियान के पुननिधान फवी रति मन्द आनन्द के दायक ॥ राहु के खेद प्रसेद भरो तन केतु मनोहर के छवि छायक । आये प्रभात कृपा करि किहि के ग्रह ते हमरे गृह लायक 1१ ॥ काति ही घि बचा कि सौं में गजमोतिन की पहिरी आति आला । आई कहाँ से कहाँ पुखराज की सैग यई जमुनातट बाला ॥ न्हात उतारी में बेनीप्रवीन हँसें सिगरी सुनि वैन रसाला । जानत ना बैंग की बदली सब सों बदली बदली कहै माला ॥२॥ रौनि में जगाई कल करन न पाई इमि ललन सताई परजंक अंक महियाँ। ससकि ससकि करहत ही वित्तीति निसा मसाकि प्रवीन वेनी कीन्ही चित्तचहियाँ ॥ भोर भये भौन के सफोन लाग गई सोय सखि जगाइवे को आानि गही बहियाँ। चाँकि परीचकि परी औचकि उचकि परी जकि परी साकि परी बकि परी नहिं- १ गंगा । २ क फ़ा हुई।