पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२३०

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शिवसिंहसरोज २११ मोरपच्छ को बसन घरि, पश्हिरे पनामा । गदि अति चंदनबूछ तर) आसावरि श्रीपाल ॥ ३ ॥ नील कंज तन देखिके, चातक जावें नीर । बन में बैठी देखिये, मल्लारष्ठि तिय भीर ॥ ४ ॥ गौरी कुंकुम लाइ कुचउग्र बदन जनु चंद । भूषाली सुमिरत पातिहि) परी विरह के फंद : ५ ॥ मोर चंदोवा सिर ख्वन, पल्लव उर बनमाल । इंदीवर तन भ्रमर जुत, लखि वसंत श्रीवाल ॥ ६ ॥ ४४४ब्रजमोहन कवि ऐसी रूपघारी प्यारी हैं। न देखी कामनारी जैसी बृषभानु की दुलारी जो निहारिये । कंज की-सी रासि जाके अंग न सुवासबस आासपास टैंगन की भीर हाथ ढारिये ॥ छाई जोति भूषन की पन को चंदसोभा मंद गति धारै पाँइ देखिवे सिधारिये । खंज मुग मीन की निकाई ब्रजमोहन नैननकी दुति पर चार बार वारिये 1१॥ केसरि को मुख राग अरे क्यादि की उपमा न कोऊ सम तूरयो । जोन में विक7 विलसे लखि मित्र सुगंध पियें अलि भूपो ॥ कोमल अंग मनोहर रंग यु पौन के झुक लगे तन झुग्यो । नारि नई निरखी ब्रजमोहन नारि नहीं जल पंकज फूल्यों ॥ २ ॥ ४४५, बलभद्र सनाढय टेहरीवाले ( १ ) ( नखलिख ) मरकतसूत कंधों पन्नग के पूत अति राजत आभूत तराज के से तार हैं । मखतूल गुनग्राम सोभित सरस स्याम काम मृग कानन के काहू के कुमार हैं ॥ कोप की किरन के जलज नल नील तंत उपमा अनंत चारु बुंवर सिंगार हैं । कारे सटकारे भीजे सधे ों सुगंध बास ऐसे बलभद्र नवाला तेरे वार हैं ॥ १ ॥ १ रति । २ नीलम । ) ।