पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२३४

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शिवसिंह सरोज , १५ मैं अरु क्षेत्र कीन्हे जो नहिं हिमंत दूती कंत घनि आघतो ॥ १ ॥ बोलत में मोर गयो चंद न मलीन भयों चातक रनि बकी काहे से भुलानी है । को हू मिले हैं जिन्हें दुख सरसान्यो ग्रति हरप चकोरन के प्रीति कुम्हिलानी है ॥ बंसीधर कहै भर मगन कलोल दरें कैरि ढोल रहे सौत मनुहानी है । चंचला हेरानी घन पानी को न ले रहो कौन रीति पावस की नाजु दरसानी है ।२॥ दुर्तन इसासन दुकूलें गठजो दीनबंधु दीन है के दुषद दुलारी याँ पुकारी है । छुड़े पुरुपारथ को ठाहे पिय पारथ से भीम महाभीम ग्रीष नीचे को निहारी हैं । ॥ भंवर तो मुंवर अमर फियो बंसीधर भीषम कर न ड्रोन सोभा यों निहारी है । सारी वीच नारी है कि नारी बीच सारीहैं कि सीरिही कि नारी है कि सारी है कि नारी है 1 ३ ॥ ४५२ वारन कवि रउतगढ़वाले -सी फटिर्की-सी दुरसरीसी सारदा-सी सारदा के मुत ऐसी समताई पाई है । । चन्दन-सी संखसी सुहास औ मुनाल ऐसी बक सी विलोकि बहु होती मुखदाई है ॥ हीरा ऐसी हंस-सी कपूर और कुंद ऐसी वारन लुकाधि मन उपमा न पाई है । पुंडरीक स्वेत फूल सम को न लागत है सुजावलसाह ऐसी चाँदनी बनाई है ॥१ ॥ ( रसिकविलासग्रंथ ) केहूँ छाँड़यो धाम केहूँ धन केहूँ ढोटा छाँड़यो केहूँ गाँड़े सुख पाल पाँइ भागी जाती हैं । के छाँड़यो पति केहूँ पान केहूँ पानी छाँड़यो केहूँ छड़यो अन्न वे सदै न कब खाती हैं ॥ ऐसी तौ गिरा-सी देह सति सोहै तुच्छ मति लखि छाँह आानी वे आापही डराती हैं । साहिब सुजान साहसुजा जू तिहारे त्रास वैरिन की वधू बन वन विललाती हैं ॥ २ ॥ १ एक पक्षी । २ बन । ३ बिल्लौर। ४ गंगा। ।