पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२३७

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शिवसिंहसरोज

२१८ शिपसिंहसरोज ४५४. व्यासजी कवि दोहा- व्यास बड़ाई: जगत की, कूकर की पहिचान । प्यार करे मुख चाईबेरु करे तनहानि ॥ १ ॥ व्यास कनक अरु कामिनी, ये लाँचवी तरवारि । निकसे हे हरिभजनको, बीच हि लीन्हे मारि ॥ २ ॥ व्यास कनक अरुकामिनी, ये हैं करुई वेलि । वैरी मार्ग दाँ है, ये मागें सिखेलि ॥ ३ ॥ धन विद्या अरु बलि तियये न गिनें कुल जाति। जो समीप इनके बसे, वाही स लपटाति ॥ ४ ॥ ४५५. ब्रजवास कवि प्राचीन आनन चंद सो खंजन से दृग हैं हर के रिई के रस छाते । शेष अमी नुराग रंगे झं झगे रससिंधु में मान चुषाते ॥ अंजन रजन हें मन के ब्रज चंद भन बन झूमकंकाते । मानौ कलानिधि पै घिघिकंज द्विऊँ लटें तिल पे मदमाते ॥ १ ॥ ४५६. फ़ैद कवि कौरsसभा-समुद्र गहर विरोध बारि कोष बड़वानल की औष अगमगी है । जोधा दुरजोधन करन जाकी वेला बने झूद कंहै लोभ की लहरि जगमगी हैं । कुडषि क्यारि ते दुसासन तुफान उठ्यो चाल्यो वादियान चीर भीति रगमगी है । मीति पतवार के ब्लूजिये करनधार आजु हरि लाज की जहाज डगमनी है ॥ १ ॥ ४५७बाजीदा कवि बाजीदा बाजी रची, दिल दरख के बीच । जो चाहै जीयो घु अवसाहेब सुमिरन सींच ॥ १ ॥ ४५८. व लदेव कवि (४ ) प्राचीन गुंटुरारे वार वारों मोतिन के हार वाले मुरली बजाय १ कामदेव ।२ अमर ।