पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२५६

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शिसिंहसरीज २३७ कुमुदाधितार देखि कुमुदविलास सत्र सर से सरोज सखि नाई नहीं चौगुनी | अनि विपरीत देखौ सिगरे द्विगन सीरवी ने भवन बनवारिन ते सौ गुनी ॥ नखत निहारि उर कौन हमें न रहन हत निसाचर चन्द देखि कौन निज औौगुनी । भावन विहीन देवि भावन अनंतोत सरद हमारी सौतिघरखाते सौगुनी।३॥ ५:३. भौन कवि ( १ ) नरहरिवंशी भानु तवाले ( गाररलाकग्रन्थे ) ग्रीषप ने तदि बर्ति पावस मरू के पाई तामें मैं जुगुल सु

  • ला पान की। हू उर्दू हिय में कनू लखे दन की झिद्धि से

न ये बिलासी वैरी भौन की ॥ चला चकें याँ याँ तन में भभु ड्टैं ऊ मरें मुरखा कहीं मैं कौन कौन की । दादुर की ह ठाई करत अब उर कोकिल की कूकें तापै बू देतीं नौन की ।।१। मोहन मीत हमारे नहीं हैं तिहारे तिहारे हैं घर नाहीं । ही ते नीकी लगें सजनी रजनी निज पी की छुओं नहिं छाईं । औीन कबिंद करे पति के अंत्रा उमड़े दृगछोरन माहीं । मेरे लिलार खिी विधना लिाख तेरे लिलार पियागलवाहीं।२ ॥ धरत घरनि पग करत कलोल छन एचत निचोल औोट लुक त लुगाई की लत भिरत फेरि फिरत फितूर करि गिरत परत पै करत मन भाई. की ॥ रिरकनि खिझनि बुनि सुरझनि भौन अरुझनि अरनि दद्दा झी और दाई की। न माई मोहेिं भाई की दुहाई वह हेरनि हँसनि मुस्कान सिपुताई की ॥ ३ ॥ तांन तपाछ मत्त गज साँ चपाट मो धरानि नपार पाठ पांघ को पकरि के । आदि स ईसाड नजर में वसाउ चैके सुजस नसाल दुख दीनै सुख हरि के ॥ कहत सुकवि भौन पौन साँ उड़ाड वोग गखियो रौजाद कान ततो सँग भरि के 1 माथदि खिलाड लाउ कांलर्ट ताप पुनि ऋए सो मिलांड ना गुबिंद देव धरि के ॥ ४ ॥