पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२७७

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज मंडन डोरी के छरत ही रिस के मिस के छंगुरी गति मारे ॥ लला अपनो में न क्रय करें स चुरी रखनके जय हाथन झाएं। कोयत ली छह पिके सिसके सतराइ के झझकरे ॥ है ॥ बहि औौस अली गली में गई मिलि जान न पाई कितीक्षक अरी । गहि बाँह लियो रस घोटन को मै न मंडन मैन त्रारि भरी ॥ ऐसे कल झहराइ के हाथ. हरे और प्यारी उसास धरी । सु लग्य है जो वह मेरे हिये हिलकी सिसकी विप की सी डरी 1१०॥ का कहि के घर जैय है यरु कौन सुनै पति बीती भई । कवि मंडन मोहन ठीक ठगी 8 तौ ऐसी लिलार लिखी ती दई ॥ और भई सो भले ही भई पर एक ही बात घितीती नई । रति हू ते गई मति हू ते गई पति हू ने गई पति हू ते गई ॥ ११ ॥ ( नयनपचासा ) दोहा- मनखासे नागरी, हृदय तुरंग विफात । लोचन तेरे लाही, ऊपर ही ले जात ॥ १ ।॥ डीठि डोरि सो मन कलस)काम कुओं में डारि। ये नैना तुष नाग, भरत मरसबारि ॥ २ ॥ खरे डररे चर , कजरारे आमनैक ? दृग आनियारे नागरी, न्यारे जानि करि नैक ॥ ३ ॥ बाँकी गड्डी विसाल अति सुन्दर भली लजोहैि । ये आँखें लाखें लहैं, जो मो तब सुधि होहि ॥ ४ ॥ ५४० मल कवि नागर पराने सुनि संधुद सफाने रन गघर डराने दिल जोरा छोरि याने के । आति सकाने देखि दल के पयने अरि भभरि तुलाने नर कॉर्ष हंसाने के ॥ मल्ल कवि हम जाने वीररस स- C के १ इज्ज़त २ इंद्र। ३ यात्रा ।